Wednesday, November 10, 2010

मैं दौलत शोहरत न चाहूँ....

मैं दौलत शोहरत न चाहूँ,
ये झूठी रौनक
न चाहूँ...

छोटा सा एक घरोंदा हो,
जहाँ फुर्सत के पलों को जी जाऊं...
मैं दौलत शोहरत न चाहूँ....

चोट मिले तों मुस्काऊं,
जब दर्द मिले तो मैं गाऊं...
मैं दौलत शोहरत न चाहूँ,..

आखों में बसूं न बसूं ,

दिल में तों मैं बस जाऊं...
मैं दौलत शोहरत न चाहूँ...

सड़कों पे उजालें हो न हो,
ज़हनों में अन्धेरें न चाहूँ...
मैं दौलत शोहरत न चाहूँ...

-हिमांशु डबराल himanshu dabral

Thursday, November 4, 2010

दिवाली कहें या दिवाला ?


‘दीपावली’, एक पावन त्यौहार। इस मौके पर दीप जलाकर अंधेरे को दूर किया जाता हैं, खुशियां मनायी जाती हैं, तरह-तरह की मिठाईयां, पकवान, पटाखे और नये कपड़े खरीदे जाते हैं, घरों की सफाई की जाती है। लेकिन इस बार दिवाली के मौके पर आम लोगों के चेहरे उतरे नजर आ रहे हैं। लोगों के चेहरे से त्योहार की रौनक की चमक दूर होने का कारण है महंगाई। महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोडी है।
महंगाई की वजह से त्योहारों की खुशी भी कहीं खो गई है। सभी चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। दिवाली आते ही घर का बजट गडबडाने का डर सताने लगता है। लेकिन करें भी तो क्या करें। बढ़ती मंहगाई ने अमीर व गरीब के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है। आज अमीर और अमीर हो रहा है, ऐसे में वो तो महंगी से महंगी चीज बड़ी आसानी से खरीद सकते हैं लेकिन इस महंगाई के दौर में गरीब आदमी की तो मन गई दिवाली...वो तो सिर पकड़कर बैठ जाता है कि दिवाली कैसे मनाए। और अगर किसी तरह गरीब इंसान मंहगाई से बच भी जाये तो नकली मिठाई, नकली पटाखे आदि आपका दीवाला निकाल देंगे और रही-सही कसर प्रदूषण और शराबी लोग पूरी कर देंगे।

बहरहाल दिवाली आ तो गयी है, लेकिन वो दिवाली वाली बात कहीं नजर नहीं आ रही...कुछ साल पहले तक दिवाली की तैयारियां एक महीने पहले ही शुरु हो जाती थी...लगता था कोई बड़ा त्योहार आ रहा है, लेकिन हमारी परंपरायें और हमारे त्योहार आधुनिकता और बाजारवाद की भेट चढ रहे है...दिया जलाओं न जलाओं लेकिन कुछ मीठा हो जाये...पूजा करो न करो लेकिन दिवाली के जश्न में शराब जरुर पीयेंगे। बाजार भी दिवाली के साजो-समान से भरा तो हुआ है लेकिन ज्यादातर सामान चाईनीज है...मिट्टी के दियों कि जगह चाईनीज दिये और लाईटों ने ले ली है, यहां तक कि लक्ष्मी-गणेश भी चाईनीज है...वाह रे इंडिया...अब चाईनीज गणेश जी की पूजा भी चाईनीज में करेंगे शायद...

खैर ये चाईनीज चीजें भी गरीबों के लिये नहीं है, ऐसी स्थिति में आम आदमी बड़ी मुश्किल से दिवाली मना पाता है और दिवाली मनाने का खामियाजा 2-3 महिने तक खर्चों में कटोती करके भुगतता है...और गरीब आदमी की बात छोड़ ही दीजिये वो बेचारा दिवाली वाले दिन भर पेट खाना भी खा ले तो उसकी दिवाली तो मन गई समझो...गरीबों के लिये तो एक दिया तक जलाने के पैसे जुटाना भारी पड़ जाता है...सालभर अंधेरे में डूबी उनकी झोपड़ी दिवाली के दिन भी जगमागा नहीं पाती...उनके बच्चे भी दिवाली के दिन आसमान में रोशनी देखकर ही खुश हो जाते है या अमीरों के बच्चों की ओर टकटकी लगाये देखते रहते है...शायद कोई उन्हे भी पटाखे या फुलझड़ी दे दे। लाखों घरों में दिवाली खुशी नहीं बल्कि दुख और निराशा लेकर आती है... अब आप ही सोचिए इसे दिवाली कहें या दिवाला ?

-हिमांशु डबराल himanshu dabral

Tuesday, October 19, 2010

मेरे साथ हो तुम...

किसी खास के जाने के बाद भी उसके होने का एहसास हमेशा रहता है...लगता है जैसे वो यही हमारे पास है...उसी एहसास को शब्दों में पिरोने की मेरी कोशिश-

दिल का हंसी एहसास हो तुम

शायद मेरे पास हो तुम...

तन्हाईयों में अक्सर तुम्हे ढूँढता हूँ

हजारों में भी तुम्हें ढूँढता हूँ...

अँधेरों में, उजालों में, ज़िंदगी के ख़्यालों में

मेरे आफ़ताब हो तुम...

शायद मेरे पास हो तुम...

जब भी आँखें भर आती हैं

हर पल मुझे सताती हैं

कभी छलक भी जाती हैं...

आँखों के सैलाब में ही सही, मेरे साथ हो तुम

शायद मेरे पास हो तुम...

तुम दूर जितना जाते रहे, उतना ही करीब आते रहे

दिल के किसी कोने में, जख़्म बन मुस्कुराते रहे...

जख़्मों की ही सही, एक सौगात होती है

शायद मेरे पास हो तुम...

ख़्वाबों में ज़िंदगी हो, ज़िंदगी में ख़्वाब हो तुम

राहों में मंज़िल हो, और मंज़िल में राह हो तुम

राह-ए-मंज़िल में, ठोकर बनकर ही सही

हाँ...मेरे साथ हो तुम...

-हिमांशु डबराल

Wednesday, October 6, 2010

बदतर है...


क्या मंदिर है, क्या मज्जिद है,
दोनों एहसासों के घर है...

आखें बंद रखो तो शब्,
वरना हर वक्त सहर है...

मज़हब के नाम पर खूं बहाने वालों,
तुम्हारे सीने में दिल नही, पत्थर है...

उसे दिल में यूँ न बसा मेरे दोस्त,
उसके हाथ में गुल नही, नश्तर है...

ये सियासत जन्नत को जहन्नुम बनाकर छोड़ेंगी,
क्या गजब है नौजवानों के हाथो में किताबें नही, पत्थर है...


अब तो जागो हिंदोस्ता वालों,
मुल्क की हालत बद से बदतर है...

-हिमाँशु डबराल himanshu dabral

Friday, October 1, 2010

असुविधा के लिए खेद भी नही है...

अब बैंक में नही परचून की दुकान पर पैसे जमा करने पड़ेंगे...हैं न आजीब...घबराइए नहीं ये असुविधा सिर्फ स्टेट बैंक के खता धारको के लिए है...बस जेब संभल कर जाइयेगा, चूँकि वहां न गार्ड है और न ही दरवाजे...आज सुबह नॉएडा में सेक्टर 26 के एसबीआई में कुछ पैसे जमा कराने गया...वहा से मुझे सेक्टर 19 के एसबीआई ये कह कर बेझ दिया गया की हम दूसरी ब्रांच के खाते का कैश नही जमा करते...लेकिन सेक्टर 19 के एसबीआई में नयी जानकारी मिली की एसबीआई ने एको(EKO) नाम के नए सेंटर खोले है आप वहां जाइये वही कैश जमा होगा...मैं उस सेंटर को लगभग आधे घंटे ढूढता रहा...बड़ी देर बाद बहुत पूछने पर एक दुकान मिली जिसके ऊपर एसबीआई एको(EKO) लिखा था...आगे गया तों लाइन लगी थी, एक गन्दी सी फोटोकॉपी की गयी स्लिप मिली जिसे भरने को कहा गया...सब फर्जी सा लग रहा था, मैने अपनी तसल्ली के लिए एसबीआई के कॉल सेंटर में फ़ोन किया, पता चला नई सुविधा है, जिसके लिए इन दुकानदारों को ट्रेनिंग भी दी गयी है...मेरे तो ये समझ में नही आया की ये सुविधा है या असुविधा?? कोई भी व्यक्ति पैसे जमा कराने के लिए अब बैंक नही बल्कि किसी गली महोल्ले की दुकान पर जाये...और लाइन में भी लगे...आगे बढा तो वहां नंबर भी मिल रहे थे...17 न.चल रहा था मेरा न. 41 था...काफी देर बाद भी न. नही आया...जो पैसे ले रहा था उससे मैने पूछा की कितना समय लगेगा??? उसने कहा की आधा पौन घंटा लगेगा तब तक चाय सिगरेट पी आओ...एक आदमी जिसका न. था वो उससे कह रहा था की जल्दी पैसे लो...उसने पास कड़ी महिला की ओर इशारा करते हुए कहा की जरा दूध दे दू बहन जी को फिर पैसे लेता हुं...काफी देर वहां खड़ा रहा और परेशां होकर वापस सेक्टर 26 के एसबीआई गया, एसबीआई के कर्मचारियों को भी एको के बारे में पता नही था, वें एक दुसरे से पूछ रहे थे....तभी उनमे से एक कर्मचारी ने सबको बताया की हाँ ऐसा भी है...मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ की जब एसबीआई में काम करने वाले लोगों को इसके बारे में पता नही है तो फिर आम जनता को कैसे पता चलेगा, खैर मैं मेनेजर से मिलने चला गया...जब उन्हें मैने ये बताया तो उनके चेहरे को देख कर लग रहा था की उन्हें भी नही पता इस असुविधा के बारे में...लेकिन वे बोली की आप 15 मिनट बातें मैं आपको फिर बुलाती हुं...20 मिनट बाद वो आई और बोली की वैसे तो हम दूसरी ब्रांच के खाते में कैश जमा नही करते लेकिन आप यही जमा करा दीजिये, मैं बोल देती हुं... मैने उनसे कहा की मैं तो करा दूंगा लेकिन बाकि लोगो का क्या जो उन दुकानों में लाइन में बिना सुरक्षा खड़े हैं...अगर किसी के भी हाथ से वहां कोई चोर पैसा ले जाये तो उसकी जिम्मेदारी एसबीआई लेगा क्या???? उन्होंने कोई जवाब नही दिया...और मुझे बोला की आप इनसे मिलले आपके खाते में कैश जमा हो जायेगा...मैने कैश जमा कराया और मुफ्त में शिकायत और सुझाव दोनों दे कर चला आया...लेकिन का बैंक में और ''एको'' मेरा मतलब उस पंसारी की दुकान में कही भी ये तक नही लिखा था की असुविधा के लिए खेद है...खैर लिखित तौर पर शिकायत और सुझाव दोनों बेझ रहा हुं...देखते है क्या होता है...लेकिन एसबीआई वालों को इतनी बड़ी असुविधा देने के बाद भी असुविधा के लिए खेद भी नही है...

-हिमांशु डबराल himanshu dabral

Thursday, September 30, 2010

स्वछंद करो...

राम जन्मभूमि विवाद पर फैसला तो आ गया है...दोनों पक्षों की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रख कर फैसला लिया गया है... लेकिन इसके बाद बस धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले लोगों से अपील है की नफ़रत न फैलाये...माननीय न्यालय के फैसले का सम्मान करे....और-
यूँ नफरत की बारूद न बिखराओ साथी,
ये धर्म युद्ध का जहरीला नारा बंद करो...
जो प्यार तिजोरी सफों में बंद पड़ा है,
आओ उसके बंधन खोलो उसे स्वछंद करो...

-हिमांशु डबराल

Friday, September 3, 2010

सच, सच ही रहेगा...

आज एनडीटीवी इंडिया की एक खास रिपोर्ट देखी....सच में खास थी...कांग्रेस की जो चापलूसी की गयी वो देखने लायक थी....लोगो हटा दो तो कांग्रेस का चैनल लग रहा था...एनडीटीवी से ये उम्मीद नही थी...पूरी रिपोर्ट एक तरफ़ा...ये मीडिया न जाने कहा जा रहा है...लोगो को गलत ख़बरें देता है...कई बार सब बिका सा लगता है....अब इसके बाद कई लोग मुझ पर भगवा या लाल रंग लगा सकते है...लेकिन सच, सच ही रहेगा...

-हिमांशु डबराल

Wednesday, September 1, 2010

आग लगाने का मन करता है....

मीडिया की पढाई वाली दुकानों की भरमार हो गयी है...ऐसे में पत्रकार बनने के लिए सिर्फ जेबे गरम होनी चाहिए...लेकिन इस क्षेत्र में आने वाले नौजवानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है...न शिक्षा का स्तर और न कुछ प्रेटिकल जानकारी...वहा तो सिर्फ पैसा बटोरने का काम होता है... इन दुकानों में इन्हें रंगीन सपने दिखाए जाते है और कोर्स पूरा होने पर सपनो की ये रंगीन दुनिया काली हो जाती है...पत्रकार बनना इतना आसन हो गया है की आजकल राह पे चलता हर चौथा आदमी अपने को पत्रकार बताता है...सब इन दुकानों के कारणहो रहा है... ऐसी दुकानों को चलाने वालो की दुकानों में आग लगाने का मन करता है....

-हिमांशु डबराल

Wednesday, August 18, 2010

होता है...

शायद जिस रिश्ते का अंजाम बुरा होता है,
वो रिश्ता ही दिल से जुदा होता है...
यूँ तो हज़ार ग़म है इस जहाँ में,
लेकिन हर आंसू के पीछे एक सपना होता है...

-हिमांशु डबराल Himanshu Dabral

Sunday, August 15, 2010

एक दिन की देशभक्ति...


आज 15 अगस्त है...आज़ादी का दिन...कल से ही मोबाईल पर मेसेज आने शुरू हो गए थे और आज तों इन्बोक्स भर गया..कोई शहीदों की दुहाई दे रहा है तो कोई आज़ाद भारत की उपलब्धिया गिना रहा है...कुछ लोग शर्म के मारे मेसेज कर रहे थे क्यूकी वो रोज डे, फलाना डे, ढिमका डे सबको विश करते है...और कुछ तो केवल इसलिए मेसेज कर रहा है की उन पर आरोप न लगे की वो देशभक्त नही है...लेकिन देशभक्ति दिखने का ये अच्छा तरीका है...वाह...मैने किसी को मेसेज नही बेझा...न मैं किसी कार्यक्रम में गया...क्या करता जाकर भी...बचपन से जाता रहा हुं...स्कूल में जाते थे तो लड्डू मिलता था...नाम था आज़ादी का लड्डू , वो लड्डू खाने से पहले देश भक्ति के गाने गए जाते थे...भाषण सुनाये जाते थे...उस समय आज़ादी का मतलब नही पता था...लेकिन आज जब पता है तो सोचता हुं की हम सच में आज़ाद है??? शायद नही...हम शायद आज भी गुलाम हैं..मानसिक रूप से...तभी तो आज़ादी के असली मायनो को आज तक नहीं समझ पाए...
वैसे आप सोच रहे होगें कि ये एक दिन की देशभक्ति क्या है? ये वो है जो आपके और हमारे अन्दर 15 अगस्त के दिन पैदा होती है और इसी दिन गायब हो जाती है। जी हाँ हम लोग अब एक दिन के देशभक्त बनकर रह गये है।
एक समय था जब हर व्यक्ति के अन्दर एक देशभक्त होता था, जो देश के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता था। लेकिन आज के इस आधुनिक समाज को न जाने क्या हो गया है। देशभक्ति तो बस इतिहास के पन्नो में दफन हो कर रह गयी है। आज हर तीज त्योहारों की ड्राइविंग सीट पर बाजार बैठा है। और हमारा स्वतन्त्रता दिवस भी बाजार के हाथों जकड़ा नजर आ रहा है।15 अगस्त भी बाजार के लिये किसी दिवाली से कम नहीं आपको बाजार मे छोटेबड़े तिरंगे, तिरंगे के रंग वाली पतंगे और न जाने क्या क्या स्वतन्त्रता दिवस के नाम पर बिकता नजर आ जायेगा। जिसको देखों अपने हाथ में तिरंगा लिये धूमता रहता हैं… भले ही उसके मन मे तिरंगे के लिये सम्मान हो न हो… खैर वो भी क्या करे दिखावे का जमाना है...दिखावा नही करेगा तो समाज में अपनी देशभक्ति कैसेदिखायेगा...अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाली पी़ढी शायद ही भगत सिंह, चन्द्र्शेखर के बारे मे जान पायेगी…
15 अगस्त का एक वाकया मुझे याद आता है आज से ठीक चार साल पहले मैं घर से आजादी की वर्षगांठ मनाने जा रहा था। कुछ बच्चे हाथ में तिरंगा लिये स्कूल जा रहे थे। तभी एक बच्चे के हाथ से तिरंगा गिर गया। भीड़ की वजह से वो उसे उठा नहीं पा रहा था। तिरंगे के उपर से न जाने कितने लोग गुजर गये… लेकिन किसी ने उसे उठाया नहीं। आजादी के प्रतीक का यह अपमान देख कर मुझे शर्म सी महसुस हो रहीं थी… मैने पहले जाकर तिरंगे को उठाया और आगे जा रहे बच्चे को दिया… दूसरा बच्चा बोला ये तो गन्दा हो गया है… 5 रूपये का ही है… नया ले लेगें…ये बात सुनकर हैरानी हो रही थी...मैने उससे बोला की बेटा ऐसा नही कहते....वो बच्चे चले गए लेकिन मै वही खड़ा रहा...यही सोचता रहा की हमने अपने बच्चों को तो देशभक्ति और तिरंगे का सम्मान करना नहीं सिखाया। लेकिन वहां से गुजर रहे और लोगो को देख कर लग रहां था कि हम खुद भी नहीं समझे… आज उसी तिरंगे को उठाने में हमे शर्म महसूस हो रही है जिसे फहराने के लिये शहीदों ने हंसते हंसते अपनी जान दे दी।
मै घर वापस आ गया...मुझे लगा की एक दिन जा कर ऐसे कार्यक्रम में सिरकत करना कोई देश भक्ति नही...केवल दिखावा है...ढकोसला है...अपने अंदर के देश भक्त का गला तो हम पहले ही घोट चुके है...फिर किस बात का आज़ादी का जश्न??? उल्टा ऐसा कर हम उन शहीदों का और उनकी शहादत का अपमान कर रहे है...
हमारे नेताओं को भी देशभक्ति ऐसे ही मौकों पर याद आती है। ऐसे ही दिन शहीदों की तस्वीरें निकाली जाती है… उन पर मालायें चढाई जाती है… देशभक्ति के राग अलापे जाते है। उसके बाद शहीदों की ये तस्वीरें किसी कोने में धूल फॉकती रहती हैं। इनकी सुध तक नही ली जाती। ये कैसी देशभक्ति है, केवल शहीदों के नाम पर स्मारक बनवाना और उस पर माला चढाना ही काफी नहीं है। जिस तरह माली की हिम्मत नहीं कि वो फूले खिला दे, उसका काम तो पौधे के लिये उचित माहौल तैयार करना है… उसी तरह हमें मिलकर देशप्रेम का ऐसा माहौल तैयार करना होगा की सबके मन में देशभक्ति रूपी फूल हमेशा खिलता रहे। ये नेता भी आजादी के असली मायनों को समझें और हम भी समझें तभी ये आजादी हमारे लिये सार्थक होगी।
हम सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। हम अपने परिवार के लिए तो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते है लेकिन हम भूल जाते है की देश के प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेदारियां हैं, जिन्हे हममें से कोई भी नही निभाना चाहता। हर कोई अपने में खोया है, पता नहीं दो के बारे में कोई सोचता भी है या नहीं, मै और कुछ कहना नहीं चाहता… लेकिन एक शेर याद आ रहा है-
बर्बाद ए गुलिस्तां के लिये एक शाख पे उल्लू काफी था
हर शाख पे उल्लू बैठा है अन्जामे गुलिस्तां क्या होगा?


-हिमांशु डबराल himanshu dabral

Tuesday, August 10, 2010

आ जाए....

क्या पता ज़ंग लगी तलवार में धार आ जाये,
दिल के किसी कोने में फिर से बहार आ जाये...


बेवफाई की कालिक से मुहं ढक सा गया है उनका,
क्या पता वफाई से चेहरे पर कुछ निखार आ जाये...

हम दिल को इसी ख्याल में भटकते रहते हैं,
की शायद उनको मेरी याद आ जाए...

क्या होगा न मैं जानु, न खुदा जाने,
क्या हो जब सामने मेरे तू, रकीब के साथ आ जाए...

-हिमांशु डबराल himanshu dabral

Monday, July 26, 2010

‘सपने’

आजकल पुरानी यादों को ताज़ा कर रहा हुं...पुराने पन्नो को पलटता हुं तो कुछ न कुछ ऐसा मिल जाता है जो दिल से जुड़ा होता है...जब सपने बहुत आते थे, उस समय एक कविता लिखी थी....

सब कुछ हो पास अपने, यही सपना है,
सबके हो खास बस, यही सपना है...
कौन कहता है सपने पूरे नहीं होते ?
उॅंची हो उड़ान तो हर मुश्किल आसान,
फिर हकीकत जो है वही सपना है....

छोड़़ गया वो साथ जिसको माना अपना,
जिसको माना पराया वही अपना है...

ये सपने भी सच होते हैं,
कभी हम हॅंसते हैं, कभी रोते हैं।
फड़फड़ा कर अपने पंख हम भी उड़ना चाहते हैं,
म्ंजिल की ओर दूर कहीं सितारों में,
हम भी खोना चाहते हैं
उन खूबसूरत वादियों में, उन महकती फिजाओं में,
उन हवाओं में, उन घटाओं में,
हम भी कहीं खड़े रहें,
बस यही सपना है...

कुछ कर दिखाना है,
हम भी हैं कुछ, ये बताना है,
जो करते थे हमसे दोस्ती के नाटक,
नाटक के परदे को गिराना है,
पता लगाना है कौन अपना, कौन बेगाना है...
बस यही सपना है...
जि़न्दगी कि दौड़ में हमसफर है न कोई।
ये तो लंगड़े घोड़े हैं जो दौड़ रहे हैं,
कुछ दूर जाकर गिरेंगे, ये दिखाना है
बस यही सपना है...

हिमांशु डबराल

Friday, July 16, 2010

मॉं.....

आज पुरानी डायरी के कुछ पन्नो को पलटते हुए माँ पर लिखी मेरी एक कविता दिखी जो उस समय की है जब मैने कविता लिखना शुरू किया था...माँ के बारें में मेरे दिल से लिखी कुछ पंक्तियाँ-

मॉं मूरत है ममता की,
मॉं सूरत है समता की,
मॉं जग में है सबसे प्यारी,
बच्चो के दुख हरने वाली,
जीवन उजीयारा करने वाली,
सच मॉं मूरत है ममता की...

भूखी रहकर हमे खिलाए,
दुखी रहकर हमे हसाए,
खुद जाग वो हमे सुलाए,
सच मॉं मूरत है ममता की...

ठोकर जब तुम खाओगे,
दुख मे जब धिर जाओगे,
मॉ से ही सुख पाओगे,
सच मॉं मूरत है ममता की...


मॉं को न तुम कभी भूलाना,
मॉं को न तुम कभी सताना,

सुख से मॉं का जीवन भर दो,
मॉ नाम तुम रोशन कर दो

क्यूंकि सच है की, मॉं मूरत है ममता की...


-हिमांशु डबराल

himanshu dabral

Saturday, July 3, 2010

रहता रहा...

मैं उन्हें कुछ न कहकर भी कुछ कहता रहा,
जिंदगी के ग़मों को यूँ ही हँस कर सहता रहा....
.
रह न सकता था जिस खंडर में एक पल कभी,

मैं उसी को घर समझ के रहता रहा...

-हिमांशु डबराल

Monday, June 28, 2010

विजयी भव:

आपने वह डायलौग तो सुना ही होगा- ''हार कर जीतने वाले को बाज़ीगर कहते हैं''. शाहरुख़ खान कि सुपरहिट फिल्म बाज़ीगर कि यह लाइन भारतीय क्रिकेट टीम पर पूरी तरह फिट बैठती है. तीसरे टी-२० विश्वकप में मुँह की खाने के बाद, भारतीय क्रिकेट तम ने एक अरसे बाद अपने प्रशंसको को खुश कर दिया है. दरअसल भारतीय क्रिकेट प्रशंसकों के चेहरे पर यह मुस्कान एशिया कप जीतने के बाद आई है. हाल ही में एशिया कप जीतकर आई इस टीम को देखकर शायद ही कोई विश्वास कर सके कि यह वही टीम है, जिसे टी-२० विश्वकप के सुपर-८ चरण में ही बाहर होना पड़ा था. विश्कप में ख़राब प्रदर्शन की गाज़ खिलाडियों पर गिरी और नाराज़ चयनकर्ताओं ने ज़िंबाबवे दौरे के लिए युवा टीम को मौका दिया. सुरेश रैना की अगुवाई वाली युवा टीम ने यहाँ भी निराश किया. ज़िंबाबवे जैसी टीम से अपने दोनों मैच हारने के बाद टीम बिना फाइनल खेले स्वदेश लौट आई. सीनियर और युवा खिलाड़ियों के ख़राब प्रदर्शन को लेकर चयनकर्ताओं के माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ देखि जा सकती थीं. सामने एशिया कप था, जहाँ भारतीय टीम को श्रीलंका, बांग्लादेश और चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान से भिड़ना था. इस बार चयनकर्ताओं ने युवाओं के जोश और सीनियर खिलाड़ियों के होश का काकटेल बनाया. महेंद्र सिंह धोनी को खुद को अच्छा कप्तान साबित करने का आखरी मौका दिया गया. इस बार भारतीय टीम ने किसी को निराश नही किया और चैम्पियनों की तरह खेलते हुए एशिया कप जीत लिया. भारत और पाकिस्तान के बीच खेले गए मैच हमेशा से खेल प्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं. और शायद पूरे एशिया कप में से क्रिकेट प्रेमियों को सबसे ज्यादा इंतजार, इस मैच का ही था. हार बार की तरह इस बार भी इस मैच में वो सब कुछ था जो इन चिर-प्रतिद्वंदियों के मैच में देखने को मिलता है. मैच के बीच में हमेशा की तरह खिलाड़ियों के बीच झड़प हुई जिसमे अम्पायरों ने बीच-बचाव किया. बहरहाल, कड़ी टक्कर, तनाव और बेहद रोमांच से भरे इस मैच को भारत ने ३ विकेट से जीत लिया. इस जीत के साथ ही भारतीय क्रिकेट प्रेमियों में हर्ष की लहर दौड़ गयी. दिल्ली में तो जगह-जगह पटाखे छुटाए गए. दिल्ली के एक क्रिकेट प्रशंसक अमित ने तो यहाँ तक कह डाला कि अब चाहे टीम एशिया कप जीते या हारे, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, भारत पाकिस्तान से जीत गया, यह सबसे बड़ी बात है.पाकिस्तान के अलावा भारतीय टीम ने बांग्लादेश को भी ६ विकेट से करारी मात दी. हालाँकि अपने लीग मैच में, भारतीय टीम को श्रीलंका के हाथों ७ विकेट से हार झेलनी पड़ी, पर फाइनल मैच में भारतीय टीम ने अपनी इस हार का बदला ले लिया. फाइनल मैच में भारत ने श्रीलंका को ८१ रन से हराकर ख़िताब पर कब्जा किया. जहाँ फाइनल मैच में 'मैन ऑफ द मैच' दिनेश कार्तिक को दिया गया, वहीं पाकिस्तान के शाहिद अफरीदी एशिया कप में ८८.३ की औसत से २६५ रन बनाकर मैन ऑफ द सीरीज़ बने. इस शानदार और 'कमबैक' जीत से खुश भारतीय चयनकर्ताओं ने १८ जुलाई से श्रीलंका में शुरू होने वाली ३ टेस्ट मैचों की सीरीज़ के लिए भारतीय टीम की घोषणा कर दी है. सचिन तेंदुलकर. राहुल द्रविड़ और वी.वी.एस. लक्ष्मण की 'त्रिमूर्ति' को टीम में शामिल किया है. इनके अलावा सहवाग, धोनी, गंभीर और रैना की मौजूदगी से टीम का बल्लेबाजी क्रम ख़ासा मज़बूत नज़र आ रहा है. ज़िम्बाब्वे और एशिया कप से अपने खराब प्रदर्शन के चलते टीम से बाहर किये गए युवराज सिंह को टीम में शामिल किया गया है. युवराज सिंह की प्रतिभा पर शायद ही किसी को शक हो, पर युवी को यह खुद ध्यान रखना चाहिए की लम्बे अरसे से लगातार युवा खिलाडी टेस्ट टीम के दरवाज़े पर दस्तक दे रहे हैं. पिछले कई सीज़नों से रणजी ट्राफी में रनों का पहाड़ खड़ा करने वाले चेतेश्वर पुजारा ने हाल ही में इण्डिया 'ए' की तरफ से खेलते हुए इंग्लैंड में दो सेंचुरी लगाई हैं, जिनमे से एक डबल सेंचुरी है. ज़ाहिर है, चयनकर्ता पुजारा के इस प्रदर्शन को ज्यादा देर तक नज़र अंदाज़ नही कर पाएंगे. खुद को साबित करने का, युवराज का यह आखरी मौका साबित हो सकता है. टीम चयन में दूसरे विकेट-कीपर के रूप में व्रिधिमान साहा का चयन समझ से परे है. एशिया कप में ५३ की औसत से १०६ रन बनाने वाले दिनेश कार्तिक साहा से ज्यादा अनुभवी, विकेट-कीपर हैं. कार्तिक एक अच्छे ओपनर भी हैं, ज़ाहिर है साहा के स्थान पर कार्तिक चयनकर्ताओं के लिए एक अच्छा विकल्प हो सकते थे. गेंदबाजी विभाग में भी ज़हीर और हरभजन को छोड़ कोई भी खास अनुभवी गेंदबाज़ नहीं है. खैर, देखते हैं, इस बार ऊँट किस करवट बैठता है. टेस्ट टीम इस प्रकार है-महेंद्र सिंह धोनी(कप्तान), वीरेंद्र सहवाग, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, वी.वी.एस. लक्ष्मण, गौतम गंभीर, मुरली विजय, युवराज सिंह, सुरेश रैना, हरभजन सिंह, ज़हीर खान, इशांत शर्मा, एस. श्रीसंत, अमित मिश्रा, प्रज्ञान ओझा और व्रिधिमान साहा.
-देवास दीक्षित

Friday, June 18, 2010

कब तक खून चूसेंगे परदेसी और परजीवी


- आशुतोष
दुनियां की सर्वाधिक लोमहर्षक औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी का मुख्य आरोपी और यूनियन कार्बाइड का निदेशक वारेन एंडरसन घटना के चार दिन बाद भोपाल आया और औपचारिक गिरफ्तारी के बाद 25 हजार रुपये के निजी मुचलके पर उसे छोड़ दिया गया।
15 हजार से अधिक लोगों की मौत और लाखों लोगों के जीवन पर स्थायी असर डालने वाले इस आपराधिक कृत्य के आरोपी ऐंडरसन को केन्द्र और राज्य सरकार की सहमति से भोपाल से किसी शाही मेहमान की तरह विदा किया गया। उसके लिये राज्य सरकार के विशेष विमान की व्यवस्था की गयी और जिले का कलक्टर और पुलिस कप्तान उसे विमान तल तक छोड़ने के लिये गये। इस कवायद को अंजाम देने के लिये मुख्यमंत्री कार्यालय भी सक्रिय था और दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय भी।
8 दिसंबर 1984 के सी आई ए के दस्तावेज बताते हैं कि यह सारी प्रक्रिया स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की देख-रेख में चली। निचली अदालत द्वारा दिये गये फैसले में भी केन्द्र सरकार का उल्लेख करते हुए उसे लापरवाही के लिये जिम्मेदार माना है। जानकारी हो कि बिना उपयुक्त सुरक्षा उपायों के कंपनी को अत्यंत विषैली गैस मिथाइल आइसोसायनेट आधारित 5 हजार टन कीटनाशक बनाने का लाइसेंस न केवल जारी किया गया अपितु 1982 में इसका नवीनीकरण भी कर दिया गया।
घटना की प्रथमिकी दर्ज कराते समय गैर इरादतन हत्या (धारा 304) के तहत मामला दर्ज किया गया जिसकी जमानत केवल अदालत से ही मिल सकती थी किन्तु चार दिन बाद ही पुलिस ने मुख्य आरोपी से उपरोक्त धारा हटा ली। शेष बची हल्की धाराओं के तहत पुलिस थाने से ही उसे निजी मुचलके पर इस शर्त के साथ रिहा कर दिया गया कि उसे जब और जहां हाजिर होने का हुक्म दिया जायेगा, वह उसका पालन करेगा। मजे की बात यह है कि जिस मुचलके पर एंडरसन ने हस्ताक्षर किये वह हिन्दी में लिखा गया था।
राज्य में उस समय तैनात रहे जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारी कह रहे हैं कि सारा मामला मुख्यमंत्री कार्यालय से संचालित हुआ। प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रमुख सचिव रहे पीसी अलेक्जेंडर का अनुमान है कि राजीव गांधी और अर्जुन सिंह के बीच इस मामले में विमर्श हुआ होगा। चर्चा यह भी चल पड़ी है कि एंडरसन ने दिल्ली आ कर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से भी भेंट की थी । इस सबके बीच कांग्रेस प्रवक्ता
का बयान आया है कि – मैं इस मामले में केन्द्र की तत्कालीन सरकार के शामिल होने की बात को खारिज करती हूं।
पूरे प्रकरण से राजीव गांधी का नाम न जुड़ने पाये इसके लिये 10 जनपथ के सिपहसालार सक्रिय हो गये हैं। उनकी चिन्ता भोपाल के गैस पीड़ितों को न्याय मिलने से अधिक इस बात पर है कि राजीव गांधी का नाम जुड़ने से मामले की आंच कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी तक न जा पहुंचे। गनीमत तो यह है कि अर्जुन सिंह ने अभी तक मुंह नहीं खोला है। किन्तु जिस तरह से अर्जुन को बलि का बकरा बना कर राजीव को बचाने के संकेत मिल रहे हैं, अर्जुन सिंह का बयान पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर सकता है।
दिक्कत एक और भी है। क्वात्रोच्चि का मामला भी लग-भग इसी प्रकार से अंजाम दिया गया था। सीबीआई की भूमिका क्वात्रोच्चिके मामले में भी संदिग्ध थी। न तो सीबीआई उसका प्रत्यर्पण करा सकी और न ही विदेश में उसकी गिरफ्तारी के बाद भी उसे भारत ला सकी। बोफोर्स घोटाले में आज तक मुख्य अभियुक्त को न्यायालय से सजा नहीं मिल सकी । किन्तु जनता की अदालत में राजीव अपने-आप को निर्दोष साबित नहीं कर सके। जिस जनता ने उनकी जवानी और मासूमियत पर रीझ कर ऐतिहासिक बहुमत प्रदान किया था उसी ने उन्हें पटखनी देने में भी देर नहीं की।
कांग्रेस के रणनीतिकारों की चिन्ता है कि मामला अगर आगे बढ़ा तो राहुल बाबा का चेहरा संवारने में जो मशक्कत की जा रही है वह पल भर में ढ़ेर हो जायेगी। वे यह भी जानते हैं कि उनकी निपुणता कोटरी में रचे जाने वाले खेल में तो है लेकिन अपनी लोकसभा से चुनाव जीतने के लिये भी उन्हें गांधी खानदान के इस एकमात्र रोशन चिराग की जरूरत पड़ेगी। इसलिये हर आंधी से उसकी हिफाजत उनकी जिम्मेदारी ही नहीं धर्म भी है।
उल्लेखनीय है कि भोपाल गैस कांड जब हुआ तब राजीव को प्रधानमंत्री बने दो महीने भी नहीं हुए थे। उनकी मंडली में भी वे सभी लोग शामिल थे जो आज सोनिया और राहुल के खास नजदीकी और सलाहकार है। राजीव और सोनिया के रिश्ते या सरोकार अगर क्वात्रोच्चि या एंडरसन के साथ थे, अथवा संदेह का लाभ दें तो कह सकते हैं कि अदृश्य दवाब उन पर काम कर रहा था तो भी, उनके कैबिनेट के वे मंत्री जो इस देश की मिट्टी से जुड़े होने का दावा करते हैं, क्यों कुछ नहीं बोले ?
कारण साफ है। कांग्रेस में नेहरू-गांधी खानदान के इर्द-गिर्द मंडराने वाले राजनेताओं से खानदान के प्रति वफादारी की अपेक्षा है, उनकी सत्यनिष्ठा की नहीं। रीढ़विहीन यह राजनेता उस परजीवी की भांति ही व्यवहार करते हैं जिसका अपने-आप में कोई वजूद नहीं होता। दूसरे के रक्त से अपनी खुराक लेने वाले इन परजीवियों को रक्त चाहिये। यह रक्त राजीव का हो, सोनिया का हो, राहुल का हो या एंडरसन का ।
देश की दृष्टि से देखा जाय तो चाहे परदेसी हो या परजीवी, उसका काम सिर्फ खून चूसना है और अपना काम निकल जाने के बाद उसका पलट कर न देखना नितांत स्वाभाविक है। यही क्वात्रोच्चि ने किया, यही एंडरसन ने। जो क्वत्रोच्चि के हमदर्द थे, वही एंडरसन को भी सहारा दे रहे थे। जिनके चेहरे बेनकाब हो चुके हैं, उनकी चर्चा क्या करना। निर्णय तो यह किया जाना है कि इन परदेसियों और परजीवियों को कब तक देश के साथ छल करने की इजाजत दी जायेगी।

Friday, April 30, 2010

मंज़िल

मंज़िल दिखती है, मगर मिलती नहीं,
मिलती तब है जब दिखना बंद हो जाये...

-हिमांशु डबराल

Monday, April 12, 2010

भिखारियों का महाकुंभ

तीर्थ नगरी हरिद्वार में महाकुंभ चल रहा है। देश-विदेश से आऐ लाखों लोग इस महाकुंभ के साक्षी बनना चाहते हैं। गंगा तट पर आस्था का महासागर देखने को मिल रहा है। लेकिन ये कुंभ आस्था के महाकुंभ के साथ-साथ भिख़ारियों का महाकुंभ भी है। शायद आप चौंक गये होंगे…लेकिन यह सच है, दूर-दूर से भिखारी यहां आ रहे हैं। छोटे हो या बड़े गरीब हो या पैसे वाले सभी तरह के भिखारी आपको यहां मिल जाऐंगे।
मेरा परिवार हरिद्वार में ही रहता है, मैं दो दिन की छुट्टी पर घर गया हुआ था। घरवालों ने कहा कि कुंभ के समय आये हो, तो गंगा नहायाओ। मेरा तो यही जवाब था कि घर के नल में ही गंगा का पानी आता है, भई घर में ही गंगा नहा लेता हूं…'मन चंगा तो नल में गंगा’, लेकिन धार्मिक मान्यता भी तो हैं, इसलिए सुबह उठकर गंगा नहाने चल दिये।
घर से हरि की पौड़ी के रास्ते में मैंने लगभग 100 से 200 भिखारियों को देखा। मैं एक मंदिर के पास से गुज़र रहा था, तो 15-20 भिखारी उसके बाहर बैठे थे। जिनमें हर उम्र के भिखारी थे। उनमें एक छोटा बच्चा भी था, जिसकी उम्र लगभग 9-10 साल के बीच रही होगी, उसने आशा भरी निगाहों से मुझे देखा, जैसे ही मैंने उसकी ओर देखा, उसने पैसे मांगने शुरू कर दिए, 5रू. दे दो, 5रू. दे दो…। उसकी मांग सुनकर मुझे लगा वाकई मंहगाई बहुत बढ़ गयी है, तभी वो 1रू. की जगह 5रू. मांग रहा है। तब मैंने उससे पूछा कि 5रू. का क्या करेगा? वह बोला कि, ‘चाय पीनी है।’ मैंने उसे चाय पिलाई और आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे बढ़ने पर मेरी नज़र एक बुजुर्ग पर पड़ी, जो गंगा तट पर अपने फटें-पूराने पतले कम्बल के सहारे ठंड से बचने की जद्दोज़हद् में लगे थे। मैं उनके पास गया और उनसे बोला, कि मुझे आपकी कुछ तस्वीर खींचनी है। उन्होंने हामी भरी और मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई में सिखाए गए सभी एंगलों से उनकी तस्वीर खींची और जाने लगा, तभी उन्होंने 10रू. की मांग की। मैंने उनसे पूछा कि बाबा 10रू. का क्या करोगे? उन्होंने बताया कि, ‘बेटा खाना खाऊंगा।’ मैं फिर चौंका कि 5 मिनट में मंहगाई इतनी कम कैसे हो गई कि 10रू में खाना मिल रहा है। पता चला कि पास की ठेली में 10रू में दो पराठे मिलते हैं। बाबा को मैंने पराठे दिए और चल दिया। बस मन में यह सोच रहा था कि इतने भिखारी और मज़लूम लोग हरिद्वार में कहां से आ गए।
एक भिखारी ने बताया कि कुंभ के धंधे का गोल्डन पिरीयड है। उससे बातचीत करने पर लग रहा था, कि वह पढ़ा-लिखा है। उसने बताया कि वह एम.ए. पास है, उसका अपना घर भी है। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि इतना सब कुछ होने के बावजूद वह भीख क्यों मांग रहा है? पूछने पर उसने बताया कि इस धंधे में ज्यादा फ़ायदा है और मेहनत भी कम करनी पड़ती है। उसने यह भी बताया कि उसके कई भिखारी मित्र हैं, जो पढ़े-लिखे हैं और दूर-दूर से ऐसे समय पर हरिद्वार आते हैं। मै भी मन में सोच रहा था कि ‘धन्धा तो अच्छा है।’
खैर मैं आगे बढ़ा और गंगा तट पर गया। वहां पंडित ही पंडित नज़र आए जो रूपयों के हिसाब से पूजा के प्रकार लोगों को बता रहे थे। बाज़ारीकरण और मंहगाई का असर इन पर भी खासा देखने को मिला। मैंने एक सज्जन से पूछा, कि पंडित जी डुबकी लगाने का तो पैसा नहीं लेंगे? उनके आश्वासन के बाद मैंने डुबकी लगाई, पानी काफी ठंडा था। मैं तुरंत बाहर आया और जय गंगा मैया बोल, कपड़े पहनकर जाने लगा, तभी थोड़ी दूर पर मेरी नज़र दो बच्चो पर गई, जो पानी में बार-बार डुबकी लगा रहे थे। उनमें से एक, हाथ में थैली लिये पानी के बाहर बैठा था और दूसरा पानी से कुछ निकालकर उस थैली में डाल रहा था, पास गया तो देखा कि वो पानी से सिक्के निकाल रहे थे। पूछा कि ‘ये क्या है?’ तो वह बोला, ये वही सिक्के हैं जो आप लोग गंगा जी में डालते है। उनकी मासूम निगाहें यही सवाल कर रही थी कि क्या ये सिक्के ऐसे ही नहीं मिल सकते? तभी उनमेसे दूसरा लड़का बोला क्या ये नदी इन सिक्कों से अपना पेट भरती है? लेकिन हम इन सिक्कों से अपना और अपने परिवार का पेट भरते हैं…
उन बच्चों की स्थिति देखकर ज़हन् में यही कश्मकश चल रही थी कि ये देश के भविष्य किस तरह आगे बढ़ेंगे? बेबसी की डुबकी लगाता उनका बचपन हमसे और इस समाज से पूछ रहा था कि ‘करोड़ो-अरबों’ के इस महाकुंभ में कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि चंद सिक्कों के लिए हमें गंगा की इस ठंड से लड़ना ना पड़े?
उसके बाद मैं कई भिखारियों से मिला और बातचीत की। उनमें से कुछ वास्तव में परिस्थितियों के हाथों मजबूर थे और कुछ केवल कमाई मात्र के लिए भीख मांग रहे थे। इस सब को देखकर आस्था का ये महाकुंभ भिखारियों का महाकुंभ ही नज़र आ रहा था। बांकि आपके ऊपर है कि आप इसे क्या समझते हैं?
-हिमांशु डबराल
himanshu dabral

Friday, April 9, 2010

नम होगा...

अश्को के सागर में, अश्को को बहाकर क्या होगा,

बहाना ही तों अश्क सहरा में बहाओ, कम से कम कमबख्त रेत का रुख तो कुछ नम होगा...

-हिमांशु डबराल

Wednesday, March 17, 2010

‘जनवाणी’ से ‘सत्ता की वाणी’ तक का सफर…


मीडिया पर आये दिन सवाल खड़े हो रहे हैं, विश्वसनीयता भी कम हुई है। बाजारीकरण का मीडिया पर खासा प्रभाव देखने को मिल रहा है। खबरों और मीडिया के बिकने के आरोपों के साथ-साथ कई नए मामले भी सामने आए हैं। ऐसे में पत्रकारिता को किसी तरह अपने बूढे क़न्धों पर ढो रहे पत्रकारों के माथे पर बल जरूर दिखायी दे रहे हैं।
भारत में पत्रकारिता का इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। आजादी के दीवानों की फौज में काफी लोग पत्रकार ही थे, जिन्होंने अपनी आखिरी सांस तक देश व समाज के लिये कार्य किये। लेकिन ये बातें अब किताबों और भाषणों तक ही रह गई हैं। जैसी परिस्थितियों से उस दौर के पत्रकारों को गुजरना पड़ता था, आज के पत्रकारों को भी सच कहने या सच लिखने पर वैसे ही दौर से गुज़रना पड़ता है। सच कहने वालों को सिरफिरा कहा जाता है और उन्हें नौकरी नहीं मिलती, मिल जाये तो उन्हें निकाल दिया जाता है। इसके बावजूद भी कई ऐसे लोग है जो सही पत्रकारिता कर रहे हैं।
2009 के लोकसभा चुनावों में मीडिया का वो स्वरूप देखने को मिला जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी, वो था मीडिया का बिकाऊ होना। हालांकि चुनाव के समय में इस तरह की छुटपुट घटनाएं सामने आती रहती थीं, लेकिन इस बार सारी हदें पार हो गईं। कुछ अखबार व कुछ समाचार चैनलों को छोड़ दें तो पूरा मीडिया बिका हुआ नजर आया। ऐसा होना सच में शर्मनाक था और लोकतन्त्र के लिये दुर्भाग्यपूर्ण। खबरें, यहां तक कि संपादकीय भी पैकेजों में बेचे जाने लगे। एक पृष्ठ पर एक ही सीट के दो-दो उम्मीदवारों को मीडिया विजयी घोषित करने लगा और हद तो तब हो गई जब मीडिया ने पैकेज न मिलने पर प्रबल उम्मीदवार के भी हारने के आसार बता दिये।
पैसे से पत्रकार व पत्रकारिता खरीदी जा रही है। लेकिन जो बिक रहा है शायद वो पत्रकारिता का हिस्सा कभी था ही नहीं। सत्ता में बैठे लोगों की भाषा आज की पत्रकारिता बोल रही है और नहीं तो पैसे की भाषा तो मीडिया द्वारा बोली ही जा रही है। कुछ एक को इन बातों से ऐतराज हो सकता है, लेकिन आंखे बंद करके चलना भी ठीक नहीं है। बाकी मीडिया का जनवाणी से सत्ता की वाणी बनने तक का सफर काफी कुछ इसी तरह चलता रहा।
रही-सही कसर पत्रकारिता में आए नौजवानों ने पूरी कर दी है। एक ओर ज्ञान की कमी, दूसरी ओर जल्दी सब कुछ पा लेने की इच्छा और पैसे कमाने की होड़ ने इन्हें आधारहीन पत्रकारिता की ओर मोड़ दिया है। प्रतिस्पर्धा के दबाव ने भी नौजवानों को पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता करने पर विवश कर दिया है। वैसे दोष उनका भी नहीं है। लाखों रूपए खर्च करने के बाद बने इन डिग्रीधारक पत्रकारों से मूल्यों की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
खैर, हम तो बस इसी ख्याल में बैठे हैं कि मीडिया जल्द ही पुन: जनवाणी बन जायेगा… लेकिन मन यही कहता है कि,
‘दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है गालिब…।’
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- हिमांशु डबराल
himanshu dabral

Tuesday, March 16, 2010

नववर्ष मंगलमय हो...


सभी को भारतीय नववर्ष सम्वत् २०६७ विक्रमी ("शोभन" नामक सम्वत्सर) तथा नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनायें।आप सभी के लिए ये नया साल नयी खुशियाँ ले कर आयें और मंगलमय रहे...


-हिमांशु डबराल

Wednesday, March 10, 2010

वो अच्छा है...


जिंदगी में, बंदगी में, आरज़ू में, गुफ़्तगू में,
जो भी मिले वो अच्छा है...
बात में, साथ में, उपहास में या सौगात में,
जो भी मिले वो अच्छा है...
रंग में, संग में और ढंग में,
जो भी मिले वो...
रात में, बरसात में, हाथ में या मुलाकात में,
जो भी मिले वो...
अंधेरों में, उजालों में, चाय के दो प्यालो में
और घटा से उन बालों में,
जो भी मिले वो...
ठोकर में, ढ़ोकर में और जोकर में,जो भी मिले वो...
प्यार में, इजहार में, तकरार में और इस संसार में,
जो भी मिले वो...
गीत में, रीत में, प्रीत में, मीत में या जीत में,
जो भी मिले वो...
सागर में, सहरा में, तेरा में या मेरा में,
जो भी मिले वो...

खेल में, मेल में, जेल में और सेल में,
जो भी मिले वो...

-हिमांशु डबराल
himanshu dabral

क्या हो?

क्या हो जब जिंदगी रंग न लाये,
क्या हो जब जिंदगी के रंग उड़ जाये...
क्या हो जब तुम बदल जाओ,
क्या हो जब हम बदल जाये....
-हिमांशु डबराल

Monday, March 8, 2010

महिला दिवस की शुभकामनाये...

मेरी ओर से सभी महिलाओं को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाये...
फूल नही चिंगारी है,
भारत की ये नारी है...
-हिमांशु डबराल

Friday, March 5, 2010

सिक्के का दूसरा पहलू.....

आज मैने एक ब्लॉग पर एक कहानी पढ़ी...वो लड़का( यहाँ पढ़ें- http://imnindian-bakbak.blogspot.com/2009/11/blog-post_30.html).उस कहानी को पढने के बाद मुझे एक लड़की की कहानी याद आ गयी..जो लिखी है...शायद इसके बाद कुछ लोग इसे पुरुषवादी मानसिकता से लिखा हुआ बताये...लेकिन मै तों बस सिक्के का दूसरा पहलू दिखाना चाहता हूँ....शायद आईना...शायद सच...
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वो लड़की...
एक लड़की थी...जिसकी शादी तय हुई...उस लड़की के लिए शादी सिर्फ एक बंधन थी...पर घर वालों की मर्ज़ी के आगे वो कुछ नहीं कर पाई...मज़बूरी में उसे शादी के लिए हाँ करना पड़ा...उसका होने वाला पति उसको बहुत प्यार करता था...वो उसके लिए बहुत गिफ्ट ले कर आता था...
उसे हमेशा खुश रखना चाहता था... लेकिन वो उस लड़के के साथ बाहर घुमने जाने में आनाकानी करती थी...उसे डर था की उसके कोई पुराने बॉयफ्रेंड्स न मिल जाये...अगर मिल गये तो उसका कच्चा-चिठ्ठा खुल जायेगा...
उसे आपने कमरे में भी नही आने देती थी...क्यूकी उस कमरे में उसके पुराने बॉयफ्रेंड्स के गिफ्ट्स रखे थे...
उसने इससे पहले कई लडको को धोका दिया था...
और शायद इस लड़के को भी धोका देना चाहती थी...वो ये भी नही जानती थी की उसने कितनी बार खुद को धोखा दिया है...पैसे की चाह ने उसे अन्धा कर दिया था...
उसके लिए रिश्तों का मतलब सिर्फ पैसा और ऐश था...मौज मस्ती का एक जरिया इससे ज्यादा कुछ नही...
उसके लिए बॉयफ्रेंड सिर्फ कार की तरह थे जिसे बोर हो जाने पर बदल दिया जाता है...घर में खड़ा करके नही रखा जाता...और रखा भी जाता है तो भी उसे उपयोग नही किया जाता...घुमा तो नयी गाड़ी में जाता है...
ऐसे में क्या कहा जाये...
किन्तु अब बात पूरी लगती है... "वो लड़का और वो लड़की''...लेकिन सिक्के का तीसरा पहलू भी है...सोचते रहिये...पर्दा जल्द उठेगा

हिमांशु डबराल
himanshu dabral

Monday, February 15, 2010

प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया…

किस मोड़ पे तो नहीं, हां लेकिन एक ऐसे मोड़ पर लाकर जरूर खड़ा कर दिया है, जहां मोहब्बत बाज़ारी नज़र आ रही है। वेलनटाइन वीक चल रहा है, बाज़ार प्यार के तोहफों से लदा हुआ है, हर आदमी की जेब के हिसाब से तोहफे बिक रहे है। ऐसे में एक नया ट्रेण्ड शुरू हो गया है, ‘जितना मंहगा गिफ्ट उतना ज्यादा प्यार’। ये सब आजकल के युवाओं में ज्यादा देखने को मिल रहा है पूरे वेलनटाइन वीक को कुछ इस तरह बनाया गया है कि लगभग हर दिन कुछ-न-कुछ गिफ्ट देना ही पड़ता है। क्या आज रिश्ते इन उपहारों के मोहताज़ हो गए है?कुछ लोगों का कहना है कि ये दिन प्यार जाहिर करने के लिए बनाये गए हैं। लेकिन प्यार तो भावनाओं और आत्मा का विषय हैं। एक छोटा सा गुलाब भी दिल की बात कह सकता है जबकि करोड़ों की अंगूठी नहीं।
लेकिन फिर भी ऐसे दिनों की जरूरत क्यों पड़ी? क्या तरक्की के इस दौर में हम रिश्तों की अहमियत भूलते जा रहें हैं? आज प्यार प्यार नहीं, दिखावा नज़र आता है। रिश्‍ते मूल्य खोते जा रहे है, बस शेष रह गयी है तो औपचारिकताएं जो ऐसे दिनों की शक्लों में नज़र आ रही है।
प्यार के इस बदलते स्वरूप को देखकर तो यह लगता है कि आज हम इन ढ़ाई आखर में छुपी भावनाओं को भूलते जा है। ‘इश्क-मोहब्बत’ तो बस किताबों और फिल्मों में ही अच्छे लगते हैं। आजकल के युवा तो हर वेलनटाइन तो अलग-अलग साथी के साथ मनाते है। प्यार पल में होता है और पल में खत्म भी हो जाता है…ये कैसा प्यार है जो बदलता रहता हैं?
लेकिन ऐसा नहीं है, कि आज के समय में प्यार पूरी तरह से बज़ारी हो गया है। आज भी प्यार शब्द की गहराइयों को समझने वाले लोग है। ऐसे कई मामले सामने आए है, जहां प्यार की खातिर लोग जान तक गंवा बैठे है…प्यार की खातिर ही समाज से लड़ गए, तो कहीं धर्म जाति के बंधनो को भी प्यार ने ही तोड़ा है।
आज का समाज मशीनों से घिरा हुआ है जिससे इंसान भी एक तरह की मशीन ही बनता जा रहा हैं। ऐसे में जरूरत है तो दिल को मशीन बननें से रोकने की और प्यार शब्द के उस एहसास को समझने की जिसे हम भूलते जा रहे है, नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब प्यार लफ्ज़ ही दुनिया से खो जाएगा।
और क्या कहूं बस आज के युवाओं के लिये एक कवि की नसीहत याद आती है-

सरल सीखना है, बुरी आदत का,

मगर उनसे पीछा छुड़ना कठिन है।

सरल जिन्दगी में युवक प्यार करना,

सरल हाथ में हाथ लेकर टहलना,

मगर हाथ में हाथ लेकर किसी का,

युवक जिन्दगी भर निभाना कठिन हैं॥

-हिमांशु डबराल

himanshu dabral

Friday, February 12, 2010

सजा बन जाओ तुम...


दिल के रंजो-ग़म की दवा बन जाओ तुम,
या दिल के ज़ख्मो को जो दे सुकूं, एक बार ऐसी हवा बन जाओ तुम...

इस कदर चाहा है तुमको रात-दिन,
मेरी रूह में बसकर, मेरे ख़ुदा बन जाओ तुम...

कभी ख्वाबों में, यादों में क्यों आते हो तुम,
आना है तो, मेरी यादों का काफिला बन जाओ तुम...

जाने से तेरे, रुक सा गया है सब कुछ,
जो थम गया है, वो सिलसिला बन जाओ तुम...

हो सके तो एक बार फिर चाहो मुझे इतना,
दुनिया के लिए महोब्बत की, इन्तहां बन जाओ तुम...

तेरे आने की उम्मीद में कब से बैठे है हम,
ख़त्म करदे जो मेरी आस, ऐसा ज़लज़ला बन जाओ तुम...
.
कुछ ऐसा करो मेरे एहसासों के साथ,
रोते-रोते हँसने की अदा बन जाओ तुम...

तोड़ना है तो मेरे दिल को इस कदर तोड़ो,
मेरी वफ़ाओ की सजा बन जाओ तुम...


-हिमांशु डबराल

Wednesday, January 20, 2010

कानून सिर्फ गरीबों के लिये अमीरों के लिये नहीं..

ठंड का मौसम, पसरा हुआ कोहरा, सर्द हवाएं, खुला आसमान और उस पर तन पर ना के बराबर कपड़े। जरा सोचिये ऐसी स्थिति में कोई भी आदमी कैसे रह सकता है। लेकिन भारत में लाखों लोग ऐसे है जो इस तरह जीने पर मजबूर है। सर्दी से बचने के नाम पर उनके पास सिर्फ चन्द कपड़े है। अकेले दिल्ली में हजारों लोग ऐसे बदतर हालात में गुजर-बसर कर रहे है। और सरकार द्वारा इनके लिये कोई खास इंतजाम नहीं किये जा रहे, उल्टा इतनी सर्दी में बिना नोटिस के दिल्ली सरकार और एम.सी.डी. गरीबों के बसेरों को उजाड़ने का काम कर रही है। ये सब राष्ट्रमंडल खेलों के मददेनजर किया जा रहा है। इन गरीबों के लिये बसेरे कि जिम्मेदारी भी सरकार और एम.सी.डी. की है, हालांकि खाना पूर्ति के लिये झुग्गियां उजाडने के बाद कुछ तम्बु जरूर लगा दिये गये, जो पर्याप्त नहीं थे। लेकिन इन सबके बीच उस 6 दिन के बच्चे का क्या कसूर जिसको उसकी मां खुले आसमान के नीचे सुलाने की नाकाम कोशिश कर रहीं थी। सवाल यहीं उठते है की दिल्ली सरकार मानवता तक भूल गयी है? ये वहीं सरकार है न जिसने इन लोगो को यहां के पते वाले वोटर कार्ड दिये थे? वोट लेते समय तो नेता जी ने भी बड़े-बड़े वादे किये होंगे, पर अब वो वादे और वो नेता कहां है?
दिल्ली को साफ-सुथरा बनाया जा रहा है। अवैध निर्माणों को हटाया जा रहा है। लेकिन क्या ये सब गरीबों के लिये ही है? दिल्ली के अन्दर कई एसी अवैध कॉलोनियां है जिनमे अमीर व रसूख वाले लोग रहते है, उन पर न तो एम.सी.डी. और न दिल्ली सरकार कोई कदम उठा रही है। उल्टा दिल्ली सरकार द्वारा अवैध जगहो पर वैध बिजली व पानी के कनेक्शन बाटे जा रहे हैं। इस सबको क्या कहा जाए? वो अमीर और रसूख वाले लोग तो अपने-अपने घरो में रजाई में बैठे चाय की चुस्की का मजा ले रहे होंगे लेकिन गरीब और बेघर लोग तो बस इस ठंड में किसी तरह जीने की जद्दोजहद में लगे होंगे। कानून सिर्फ गरीबों और मज़लूम लोगों पर ही लागू होता है क्या? और ऐसे में गरीबों की पैरवी करने वाले और मानवाधिकार के लिये चिल्लाने वाले लोग कहां सोये हुए है? उनके कानों में तो जूं भी नहीं रेंग रही है।
गरीब आदमी की जिन्दगी तो बस एसे ही कटती रहेगी और हम अपने-अपने एयर टाइट कमरों मे मज़े से आराम की नींद लेते रहेंगे…चलिये अपने दिल को यूं ही बहलाइये की ”हम कर भी क्या सकते है?” और सो जाइए…मेरी ओर से जब सोओ तब गुड नाइट।
.

-हिमांशु डबराल
himanshu dabral

Wednesday, January 13, 2010

बहुत याद आओगे तुम...


जब भी हम मुस्कुराएंगे, यू ही गुनगुनायेंगे
सपनो को सजायेंगे, कागज की नाव बनायेंगे
अँधेरे से
घबराएँगे, पर पास तुम्हे न पाएंगे
तो बहुत याद आओगे तुम...

जब भी सोचेंगे पुरानी
हर बात
तुम्हारा वो हंसी साथ,
जगमगाती वो
चांदनी रात
उसमे होती वो बरसात,
भीगे तन और भीगे मान की वो सौगात
जब भी सोचेंगे तो बहुत याद...
.
जब भी ढूढेंगे वो मस्ती,
पढने में वो सुस्ती
जब ख़ुशी होती थी बड़ी
सस्ती,
सबकी होती कुछ अपनी
कुछ हस्ती
जगमगाती थी हर बस्ती,
जब भी सोचेंगे तो बहुत याद...
.
जब भी ढूढेंगे यारों का साथ
मदद को बढ़ता वो हाथ,
सबके लिए प्यार, बच्चों का दुलार
जब भी सोचेंगे तो बहुत याद...

वो हंसी वादियाँ,
वो कोहरे की चादर
ठण्ड की कपकपाहट, बादलों का वो जहाँ
और उसमे चाय की वो चुस्की
जब भी सोचेंगे तो बहुत याद...

जब भी होंगे हम तन्हा
साथ न देगा कोई लम्हा,
जब भी बैठेंगे हम तनहाइयों में
दिल की रुसवाइयों में
जब भी सोचेंगे तो बहुत याद...

तुम्हारी वो अदा, वो मुस्कराहट, वो आहट
वो सादगी, वो खुशबु, जो महका गयी
जब भी सोचेंगे तो बहुत याद...

वो टूटते तारे को देखकर मन्नते मांगना
बारिश के पानी में कूदना
वो छीटें, वो पत्तें, वो पेड़, वो चिड़िया
जब भी सोचेंगे तो बहुत याद...
.
वो तुम्हारी कहानी, तुम्हारा वों बोलना
मन की बातों को दिल से
खोलना

जब भी ढूढुगा वो सावन
अनमना
सा वो मन
जब भी सोचेंगे तो बहुत याद...

जब भी लिखेंगे कुछ, जब भी
पढेंगे
कुछ
जब भी कहेंगे कुछ, जब भी सुनेगे कुछ
हर लफ्ज में जगमगाओगे तुम
जब भी
सोचेंगे तो बहुत याद आओगे तुम...

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-हिमांशु डबराल

himanshu dabral

Saturday, January 9, 2010

Insulting Departed Soul


Ruchika Girhotra was resting peacefully after departing from her earthly abode, giving responsibility to her friend Aradhana and her parents to fight against not only her tormentor but also murderer.
She did not leave us because of her choice but was forced to by a beast in human form called S P S Rathor. She was prepared to fight and tolerate all inhuman treatment meted to her but her courage caved in after seeing insults and criminal charges inflicted on her Father and Brother. She was shattered by the treatment she got from her School, which is a second home for any child and a source of love, affection and moral courage.
Aradhana and her parents picked up the cudgel on Ruchika’s behalf thinking they have to fight only Khaki wearing monster, but on entering the arena it dawned on them that they were up against the whole Haryana political system irrespective of the parties they belong to as they pampered and promoted him in due course and also the bureaucratic family of the State.
Aradhana and her parents should be honored and bestowed national bravery award for standing up against such powerful lobby without having a fallback. Like communal riots during the partition and terrorist attacks on Kashmiri Pandits, this family was also made a refuge but they did not give up their fight for the right cause.
Our cool and patient judiciary after hearing the case for long nineteen years sentenced Rathor for SIX months imprisonment and a fine of Rs.1000/-. What Ruchika would have thought of this judgment if she could have risen form her ashes. All the pain, sorrow, humiliation would have gushed up and would have said loud and clear that her brutal murderer has been set free.
Our various NGO’s working for the cause of women or cry for women empowerment are surprisingly quiet or they will take another nineteen years to ponder and decide as to what line of action they should take against this unprecedented unjust sentence.
Men like Rathor if you can call them men are worst than Pandher and Koli put together because our constitution placed immense responsibility in their hands under oath and they very conveniently and scrupulously insult the trust.
Its time we should introspect as to who killed or rather who insulted the departed soul of Ruchika Girhotra, our politicans, our judicary by passing such a light sentence for such a heinous crime or our social structure which does not respond to any atrocities.
We need many more family like that of Aradhana.

-Rajive S Notyal

Friday, January 1, 2010

नव वर्ष की ढेर सारी शुभकामनाए



मेरी ओर आप सभी को अंग्रेजी नव वर्ष की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाये...आप सभी के लिए आने वाला साल मंगलमय रहे...भगवान तथा बड़ों का आश्रीवाद सदा बना रहे...नया साल आपकी जिंदगी में खुशहाली और उन्नति लेकर आये...

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इसी कामना के साथ -
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हिमांशु डबराल