Wednesday, August 18, 2010

होता है...

शायद जिस रिश्ते का अंजाम बुरा होता है,
वो रिश्ता ही दिल से जुदा होता है...
यूँ तो हज़ार ग़म है इस जहाँ में,
लेकिन हर आंसू के पीछे एक सपना होता है...

-हिमांशु डबराल Himanshu Dabral

Sunday, August 15, 2010

एक दिन की देशभक्ति...


आज 15 अगस्त है...आज़ादी का दिन...कल से ही मोबाईल पर मेसेज आने शुरू हो गए थे और आज तों इन्बोक्स भर गया..कोई शहीदों की दुहाई दे रहा है तो कोई आज़ाद भारत की उपलब्धिया गिना रहा है...कुछ लोग शर्म के मारे मेसेज कर रहे थे क्यूकी वो रोज डे, फलाना डे, ढिमका डे सबको विश करते है...और कुछ तो केवल इसलिए मेसेज कर रहा है की उन पर आरोप न लगे की वो देशभक्त नही है...लेकिन देशभक्ति दिखने का ये अच्छा तरीका है...वाह...मैने किसी को मेसेज नही बेझा...न मैं किसी कार्यक्रम में गया...क्या करता जाकर भी...बचपन से जाता रहा हुं...स्कूल में जाते थे तो लड्डू मिलता था...नाम था आज़ादी का लड्डू , वो लड्डू खाने से पहले देश भक्ति के गाने गए जाते थे...भाषण सुनाये जाते थे...उस समय आज़ादी का मतलब नही पता था...लेकिन आज जब पता है तो सोचता हुं की हम सच में आज़ाद है??? शायद नही...हम शायद आज भी गुलाम हैं..मानसिक रूप से...तभी तो आज़ादी के असली मायनो को आज तक नहीं समझ पाए...
वैसे आप सोच रहे होगें कि ये एक दिन की देशभक्ति क्या है? ये वो है जो आपके और हमारे अन्दर 15 अगस्त के दिन पैदा होती है और इसी दिन गायब हो जाती है। जी हाँ हम लोग अब एक दिन के देशभक्त बनकर रह गये है।
एक समय था जब हर व्यक्ति के अन्दर एक देशभक्त होता था, जो देश के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता था। लेकिन आज के इस आधुनिक समाज को न जाने क्या हो गया है। देशभक्ति तो बस इतिहास के पन्नो में दफन हो कर रह गयी है। आज हर तीज त्योहारों की ड्राइविंग सीट पर बाजार बैठा है। और हमारा स्वतन्त्रता दिवस भी बाजार के हाथों जकड़ा नजर आ रहा है।15 अगस्त भी बाजार के लिये किसी दिवाली से कम नहीं आपको बाजार मे छोटेबड़े तिरंगे, तिरंगे के रंग वाली पतंगे और न जाने क्या क्या स्वतन्त्रता दिवस के नाम पर बिकता नजर आ जायेगा। जिसको देखों अपने हाथ में तिरंगा लिये धूमता रहता हैं… भले ही उसके मन मे तिरंगे के लिये सम्मान हो न हो… खैर वो भी क्या करे दिखावे का जमाना है...दिखावा नही करेगा तो समाज में अपनी देशभक्ति कैसेदिखायेगा...अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाली पी़ढी शायद ही भगत सिंह, चन्द्र्शेखर के बारे मे जान पायेगी…
15 अगस्त का एक वाकया मुझे याद आता है आज से ठीक चार साल पहले मैं घर से आजादी की वर्षगांठ मनाने जा रहा था। कुछ बच्चे हाथ में तिरंगा लिये स्कूल जा रहे थे। तभी एक बच्चे के हाथ से तिरंगा गिर गया। भीड़ की वजह से वो उसे उठा नहीं पा रहा था। तिरंगे के उपर से न जाने कितने लोग गुजर गये… लेकिन किसी ने उसे उठाया नहीं। आजादी के प्रतीक का यह अपमान देख कर मुझे शर्म सी महसुस हो रहीं थी… मैने पहले जाकर तिरंगे को उठाया और आगे जा रहे बच्चे को दिया… दूसरा बच्चा बोला ये तो गन्दा हो गया है… 5 रूपये का ही है… नया ले लेगें…ये बात सुनकर हैरानी हो रही थी...मैने उससे बोला की बेटा ऐसा नही कहते....वो बच्चे चले गए लेकिन मै वही खड़ा रहा...यही सोचता रहा की हमने अपने बच्चों को तो देशभक्ति और तिरंगे का सम्मान करना नहीं सिखाया। लेकिन वहां से गुजर रहे और लोगो को देख कर लग रहां था कि हम खुद भी नहीं समझे… आज उसी तिरंगे को उठाने में हमे शर्म महसूस हो रही है जिसे फहराने के लिये शहीदों ने हंसते हंसते अपनी जान दे दी।
मै घर वापस आ गया...मुझे लगा की एक दिन जा कर ऐसे कार्यक्रम में सिरकत करना कोई देश भक्ति नही...केवल दिखावा है...ढकोसला है...अपने अंदर के देश भक्त का गला तो हम पहले ही घोट चुके है...फिर किस बात का आज़ादी का जश्न??? उल्टा ऐसा कर हम उन शहीदों का और उनकी शहादत का अपमान कर रहे है...
हमारे नेताओं को भी देशभक्ति ऐसे ही मौकों पर याद आती है। ऐसे ही दिन शहीदों की तस्वीरें निकाली जाती है… उन पर मालायें चढाई जाती है… देशभक्ति के राग अलापे जाते है। उसके बाद शहीदों की ये तस्वीरें किसी कोने में धूल फॉकती रहती हैं। इनकी सुध तक नही ली जाती। ये कैसी देशभक्ति है, केवल शहीदों के नाम पर स्मारक बनवाना और उस पर माला चढाना ही काफी नहीं है। जिस तरह माली की हिम्मत नहीं कि वो फूले खिला दे, उसका काम तो पौधे के लिये उचित माहौल तैयार करना है… उसी तरह हमें मिलकर देशप्रेम का ऐसा माहौल तैयार करना होगा की सबके मन में देशभक्ति रूपी फूल हमेशा खिलता रहे। ये नेता भी आजादी के असली मायनों को समझें और हम भी समझें तभी ये आजादी हमारे लिये सार्थक होगी।
हम सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। हम अपने परिवार के लिए तो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते है लेकिन हम भूल जाते है की देश के प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेदारियां हैं, जिन्हे हममें से कोई भी नही निभाना चाहता। हर कोई अपने में खोया है, पता नहीं दो के बारे में कोई सोचता भी है या नहीं, मै और कुछ कहना नहीं चाहता… लेकिन एक शेर याद आ रहा है-
बर्बाद ए गुलिस्तां के लिये एक शाख पे उल्लू काफी था
हर शाख पे उल्लू बैठा है अन्जामे गुलिस्तां क्या होगा?


-हिमांशु डबराल himanshu dabral

Tuesday, August 10, 2010

आ जाए....

क्या पता ज़ंग लगी तलवार में धार आ जाये,
दिल के किसी कोने में फिर से बहार आ जाये...


बेवफाई की कालिक से मुहं ढक सा गया है उनका,
क्या पता वफाई से चेहरे पर कुछ निखार आ जाये...

हम दिल को इसी ख्याल में भटकते रहते हैं,
की शायद उनको मेरी याद आ जाए...

क्या होगा न मैं जानु, न खुदा जाने,
क्या हो जब सामने मेरे तू, रकीब के साथ आ जाए...

-हिमांशु डबराल himanshu dabral