क्या मंदिर है, क्या मज्जिद है,
दोनों एहसासों के घर है...
आखें बंद रखो तो शब्,
वरना हर वक्त सहर है...
मज़हब के नाम पर खूं बहाने वालों,
तुम्हारे सीने में दिल नही, पत्थर है...
उसे दिल में यूँ न बसा मेरे दोस्त,
उसके हाथ में गुल नही, नश्तर है...
ये सियासत जन्नत को जहन्नुम बनाकर छोड़ेंगी,
क्या गजब है नौजवानों के हाथो में किताबें नही, पत्थर है...
दोनों एहसासों के घर है...
आखें बंद रखो तो शब्,
वरना हर वक्त सहर है...
मज़हब के नाम पर खूं बहाने वालों,
तुम्हारे सीने में दिल नही, पत्थर है...
उसे दिल में यूँ न बसा मेरे दोस्त,
उसके हाथ में गुल नही, नश्तर है...
ये सियासत जन्नत को जहन्नुम बनाकर छोड़ेंगी,
क्या गजब है नौजवानों के हाथो में किताबें नही, पत्थर है...
अब तो जागो हिंदोस्ता वालों,
मुल्क की हालत बद से बदतर है...
-हिमाँशु डबराल himanshu dabral
बहुत सटीक रचना ....जागरूक करती हुई
ReplyDeletekya baat hai sahab....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना.
ReplyDelete"ये सियासत जन्नत को जहन्नुम बनाकर छोड़ेंगी,
ReplyDeleteक्या गजब है नौजवानों के हाथो में किताबें नही, पत्थर है..."
प्रासंगिक और सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.