Thursday, April 26, 2012

किसी का बेटा ऐसे घर न लौटे...


बेटे के फ़ौज में भरती हो जाने की ख़ुशी में परिवार ने पूरे गाँव की दावत की थी| पूरे गाँव को सजाया गया था| फ़ीकी और पुरानी हो चुकी सजावट अब भी कंही-कंही धुंधली यादों की तरह बाकी थी| कच्ची सड़क पर धूल उड़ाते हुए, नीले रंग का ट्रक सुमित के गाँव की तरफ तेज़ी से रहा था..ट्रक से उड़ा धूल का गुबार, बवंडर की शक्ल इख्तियार कर चुका था. गाँव में पसरा सन्नाटा, होने वाली अनहोनी का संकेत भर था| आगे का रास्ता सकरा होने की वजह से, ट्रक आगे नहीं जा सका,सो अब उन्हें पैदल ही जाना होगा| ये ट्रक CRPF का था| ट्रक वहीँ रुका रहा लेकिन ट्रक से नीचे कोई नहीं उतरा| फौजी गाड़ी को देख कर गाँव में अफरा-तफरी मच गई | थोड़ी ही देर में ट्रक को चारो तरफ से भीड़ ने घेर लिया| गांववाले उचक-उचक कर ट्रक के अन्दर देखने की कोशिश कर रहे थे| ट्रक में चार जवान थे और एक काले रंग का बक्सा था. बक्से पर सफ़ेद रंग से सुमित पाटिल और फ़ोर्स नंबर लिखा हुआ था. सुमित का सामान तो था लेकिन सुमित नहीं था. धूल के गुबार को चीरती हुई सफ़ेद रंग की अम्बुलेंस भी कुछ ही देर में ठीक ट्रक के पीछे खड़ी हुई . अम्बुलेंस में भी सुमित नहीं था. C.R.P.F. के जवानों के गाँव में आने की खबर सुन कर सुमित के पिता अरविन्द दौड़े चले आये और आते ही पूछा "मेरा बेटा ठीक तो है". उन्हें ये खबर मिल चुकी थी कि "नक्सलियों ने C.R.P.F. के जवानों पर गढ़चिरौली में हमला किया है" उन दिनों सुमित भी वही तैनात था . जवानों के साथ आए अफसर ने सुमित के पिता को जवाब दिया "फ़ौज को आपके बेटे पर गर्व है, वो बहुत बहादुर था, सुमित मरा नहीं शहीद हुआ है. ये जवाब किसी भी पिता को जीवन भर के लिए मूक कर देने को काफी था. अरविन्द जी कुछ बोल सके, सिर्फ आँखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा. वो शायद चीख-चीख कर रोना चाहते होंगे लेकिन कैसे रोते, उनका सब कुछ लुट चुका था. बाप के काँधे पर जवान बेटे की लाश से ज्यादा भारी बोझ इस संसार में भला क्या हो सकता था. सैकड़ो लोगों की भीड़ तिरंगे में लिपटे सुमित को देखना चाह रही थी. चार जवान सुमित के शव को कांधे पर लिए हुए भीड़ के बीच से होते हुए सुमित के घर की तरफ बढ़ रहे थे. भीड़ शांत थी, कोई कुछ नहीं बोल रहा था. सुमित की माँ को इस बात का अंदेशा हो गया था की कोई अनहोनी घटी है. लेकिन एक माँ कैसे सोच लेती की उसका बेटा इस दुनिया में अब नहीं रहा. जैसे ही सुमित का शव जवानों ने कांधे से उस आंगन में रखा गया जहाँ सुमित ने कभी चलना सीखा होगा, अरविन्द जी बोले देख तेरा "बेटा लौट आया है". माँ दौड़ी-दौड़ी आई और तिरंगे से लिपटे ताबूत को पीट-पीट कर रोने लगी. ताबूत खोला गया तो कई आंखे सहम गई. सुमित का शरीर टुकडो में था, जैसे फटे पुराने कपड़ो को बेतरतीब रख कर सिल दिया गया हो. बारूदी सुरंग धमाके में सुमित के साथ ११ और जवानों की भी मौत हुई. मांस के चिथड़ो से गुथी सुमित की लाश तो भी काफी अच्छी हालत में थी जो घर तक पहुँच सकी. क्या हर बेटा ऐसे ही घर लौटता है? ये सवाल उन जवानों के माता-पिता के ज़हन में कई बार आता होगा जिनके बेटे ऐसे शहीद हो जाते हैं...

हमारे देश में नक्सलवाद एक गंभीर समस्या है नक्सली हमले नासूर बनते जा हे हैं और अब वक्त गया है कि इस नासूर को कुरेद कर हमेशा के लिए खत्म कर दिया जाए| इसके आगे घुटने टेकने वाली सरकारें कम से कम पकडे गए नक्सलियों को छोड़ कर सुमित के जैसे शहीदों का थोडा सम्मान जरुर कर सकती हैं. लेकिन राजनितिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण शायद ऐसा न हो...हर बार की तरह इस बार भी शायद नक्सली छोड़ दिए जाएँ...लेकिन बस दिल से एक ही आवाज़ आती है की 'किसी का बेटा ऐसे घर न लौटे'


-आज़म खान

(Azam khan)

Saturday, April 14, 2012

अब मैं अपना अपना ही करूँगा...

कुछ दिनों पहले चाय की दुकान पर बैठा था मेरे पास में बैठा व्यक्ति फ़ोन पर जोर जोर से बात कर रहा था, तो उसकी बात न चाहते हुए भी सुननी पड़ रही थी...वो शायद अपनी पत्नी से बात कर रहा था...वो कह रहा था की 'तुमने कभी मना नही किया और मैं अपनी माँ के कहने पर हर महीने पच्चीस हज़ार में से माँ को दस हज़ार रूपये देता था'...मैंने इतनी बात सुनी तो लगा की वो और उसकी पत्नी कितने अच्छे होंगे जो घर में इतना सपोर्ट करते है..लेकिन अगले ही पल उसकी बात ने मुझे चौंका दिया...और मिनट से पहले ही मुझे सोच बदलनी पड़ी...वो अपनी पत्नी से बोला की 'अब मैं कुछ नही करने वाला भाई को देखो ज़रा, उसका फोन आया था... मुझसे कह रहा था की माँ-पापा की दवाई का खर्चा वो ही उठाता है और पिछली बार जब माँ एडमिट हुई थी तो उसने ही खर्चा किया था, लेकिन साले ने सरकारी अस्पताल में एडमिट कराया होगा और मुझसे बाते बना रहा है, मैंने जो घर में इतना दिया है उसका क्या...तो उधर से उसकी पत्नी ने कुछ कहा होगा तो वो फिर बोला ‘अरे नही, तुम नही जानती, बहुत तेज आदमी है...अब मैं कुछ नही करने वाला किसी के लिए भी...उसे देखना हो तो देखे माँ बाप को, मैंने जितना देंना था दे दिया...अब तो मैं अपना अपना ही करूँगा...’

मुझे उसकी सोच पर घृणा हो रही थी, कि वो अपने माँ बाप कि दवाई के खर्चों के लिए भी अपने भाई से लड़ रहा है...उसके माँ-बाप ने शायद ही उसकी या उसके भाई कि परवरिश में कोई कमी कि होगी...उसकी माँ ने खाना कम पड़ने पर शायद ही कभी सोचा होगा कि पहले अपना पेट भर लूँ फिर बच्चों को दूँ या बच्चों के लिए कपडे खरीदने कि जगह अपने लिए साड़ी खारीद लूँ...लेकिन दोनों भाई अब माँ-बाप की देखभाल तक करने में पैसों को देख रहे है, वो सोच रहे हैं कि मैं ज्यादा क्यों खर्च करूँ...

हांलाकि माँ-बाप के तिरस्कार के कई मामले सामने आते रहते है जो सोचने पर मजबूर करते हैं कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है...बड़े होते ही माँ-बाप हमे बोझ लगते है...कुछ लोगों का कहना है कि जब हमारा परिवार बढ़ जाता है शादी, बच्चे और दुनिया भर के खर्चे बढ़ जातें है तो हमारी प्राथमिकताएं बदल जाती है...या कहें कि परिस्थितियाँ विपरीत हो जाती हैं...बात भी गलत नहीं है लेकिन अगर आप सक्षम हैं और आप फिर भी अपने माँ-बाप के लिए कुछ नही कर रहे है तो मुझे ये बोलने में कोई शर्म नही होगी कि आपसे नालायक ओर धूर्त कोई नही है...

मेरे एक मित्र(जो शादीशुदा हैं) कह रहे थे कि कई बार जब आपकी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती है और जब नयी पीढ़ी आपसे सवाल करती है कि आपने क्या किया? तो हम निउत्तर नहीं होना चाहते...या जब समाज हमारे किये को मान्यता नही देता है तो हम खीज कर सोचते है कि जब इतना कुछ करके भी लोग ये बोलते है कि कुछ नही किया, तो हम कुछ करें भी क्यों? लेकिन क्या हमे किसी कि नज़र में अच्छा बनने के लिए कुछ करना है या हमे अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियां का निर्वाहन करना है...

मेरी बातें कुछ लोगों को आदर्शवादी ओर वास्तविकता से परे या फिर किताबी लग सकती हैं लेकिन वो लोग आईने के सामने खुद से ये सवाल पूछे, उनको खुद कि आखों में जवाब मिल जायेगा...

मुझे लगता है ये बातें कोई आदर्शवादी बातें नहीं है ये बातें तो आम होनी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य है कि ये आम नही है...अब हम सब ये सोचते है कि जो व्यक्ति अपने माँ-बाप के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभा रहा है वो बहुत आदर्श व्यक्ति है...महान टाइप...हमे उस व्यक्ति को देख अच्छा तो लगता है लेकिन हम अपने घर आकर उसके जैसा नही बनना चाहते...क्यों?

-हिमांशु डबराल