Wednesday, May 14, 2014

पीछे केवल...

उस ट्रेन के चलने पर पीछे केवल वो स्टेशन, वो इमारतें, 
वो गलियां और वो जामुन का पेड़ ही नहीं छूटा,
पीछे छूट गए अलविदा कहते मेरे दोस्त, 
उनके साथ देखे वो सपने और मेरे अपने....
लेकिन आगे बढ़ रहा हूँ मैं...

पीछे केवल वो फूल, वो तितली और बचपन के खेल ही नहीं छूटे,
पीछे छूट गया खुशबूं से महकता जहाँ, तितली के पंखों में छिपी वो रंगीन दुनिया,
वो चंचलपन और मेरा वो बचपन...
लेकिन आगे बढ़ रहा हूँ मैं...

पीछे केवल वो साईकिल की रेस ही नहीं छूटी,
पीछे छुट गया वो बड़प्पन, वो एहसास,
जब किसीके भी जीतने पर दुःख नहीं होता था...
लेकिन आगे तो बढ़ रहा हूँ मैं....

पीछे केवल झरने के किनारे, पत्थर पर रखे चाय के वो गिलास नहीं छूटे,
पीछे छूट गयी मानिंद चलती हवाओं के साथ चहरे पर पड़तीं वो फुहारें,
और साथ में छूट गयी वो दोस्तों के साथ घंटों की गप्पे...
लेकिन आगे बढ़ रहा हूँ मैं....

पीछे केवल वो कॉलेज, वो क्लास ही नही छूटीं,
पीछे छुट गयी पल में खत्म हो जाने वाली लड़ाईयां,
वो पैसे इकठ्ठा करके की गयी पार्टियां,
वो जीने मरने की कसमें और वो निस्वार्थ साथ....
लेकिन आगे बढ़ रहा हूँ मैं....

शायद पीछे केवल कुछ लम्हें नहीं छूटे,
पीछे छूट गयी वो हंसी, वो खुशी
और शायद मैं भी....
न जाने जो आगे बढ़ रहा है वो कौन है....

- हिमांशु डबराल

Monday, May 12, 2014

रहता रहा...

मैं उन्हें कुछ न कहकर भी कुछ कहता रहा,
जिंदगी के ग़मों को यूँ ही हँसकर सहता रहा....

रह न सकता था जिस खंडर में एक पल कभी,
मैं उसी को घर समझ के रहता रहा.

-हिमांशु डबराल