Monday, December 21, 2009

कुछ पंक्तिया दिल से ...

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मंजिल दिखती है मगर मिलती नही,
मिलती तब है जब दिखना बंद हो जाये .

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किसी के दिल में किसी के ख्वाबो को जब पनाह मिलती है,
तभी एक आशिक को उसके इश्क की सदा मिलती है .

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जब से हम तुमसे मिले, ये नज़र झुकती नही,
देखती है बस तुम्हे, अब तो ये थकती नही .

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मुझको अपना कहने वाले, अपनी आखों को आईने में देख,
खुद से नज़रे मिला सको तो ठीक, नही तो नज़र आएगा फरेब

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महोब्बत के रंग में यू रंग न जाना,
कि अपना रंग ही नज़र न आये,
कोई तुम्हे ढूढ़ते हुए आये और, पहचान भी न पाए .

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-हिमांशु डबराल
himanshu dabral



Thursday, December 10, 2009

26/11 को मत भूलों

एक साल पहले दहल गया था ‘पूरा देश’। मुम्बई में हुए सिलसिलेवार आंतकी हमलों ने पूरे देश में दहशत का माहौल पैदा कर दिया था। मौत का ऐसा मंजर किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। लाशों के ढेर में पसरा सन्नाटा और उस सन्नाटे में गूंजती गोलियों की आवाजें। पूरा देश आतंकियों के खूनी खेल को अपने-अपने टीवी सेटों पर टकटकी लगाए देख रहा था। 26/11 को एक साल हो गया है लेकिन आज भी लोग उस खौफनाक मंजर को यादकर सहम जाते हैं। आज भी एक आम आदमी घर से निकलने के बाद पहले सोचता है कि शाम को घर लौटगा कि नहीं। जिन्होंने अपने करीबी खोये, जिस मां ने अपने बेटे को खोया, जो बच्चे अनाथ हो गए, उन सबकी जिन्दगी तो 26/11 के बाद जैसे रूक गयी है। हर हिन्दुस्तानी के दिल से यही आवाज निकल रही है कि ‘बहुत हुआ अब’।
इस समय सेना प्रमुख के बयान ने आंतकवाद के खिलाफ सरकार के रवैये को लेकर हकीकत जाहिर की। सेना प्रमुख जनरल दीपक कपूर ने कहा कि ”अमेरिका में 9/11 के बाद कुछ नहीं होता है। इंडोनेशिया में भी बाली में विस्फोट के बाद कुछ नहीं होता है। लेकिन हमारे यहां संसद के हमले के बाद 26/11 होता है, बस अब और नहीं।” हलांकि उनका ये बयान मुंबई हमले की बरसी के समय में आया। सेना प्रमुख का ये बयान भारतीय सेना के हौसले को दर्शाता है लेकिन एक सवाल भी खड़ा करता है कि अब तक आंतकवाद के खिलाफ हमारी सरकार ने कड़ा रवैया क्यों नही अपनाया? क्या 26/11 जैसे हमले का इंतजार हो रहा था?
संसद में हमले के बाद भी कोई कड़े कदम नहीं उठाये गये। जिसका खामियाजा 26/11 के रूप में देखने को मिला।
आज भी आतंकियों के हौसले बुलंद हैं। 26/11 की बरसी के मौके पर सरकार को सबक लेने की आवश्‍यकता है और आतंकवाद के खिलाफ कड़े रवैये को अपनाने की जरूरत है तभी देश आतंकवाद से मुक्त हो पायेगा।
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- हिमांशु डबराल

Saturday, November 28, 2009

चुभन

चुभन दिल में बड़ी आजीब सी होती हैं,
इसकी ख़ुशी भी हमे अजीज सी होती है।
चुभन दिल में...
हम क्या करे हमे प्यार है उनसे,
और वो कहते है हमसे,
की ऐसी किस्मत बड़े नसीब से होती है...
चुभन दिल में...
मन की पतंगे,
ख्वाबो के आसमा में, खो जाती है...
जैसे नीले आसमा की गोद में वो सो जाती है,
फिर भी वो हमारे लिए सजीव सी होती है...
चुभन दिल में...
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-हिमांशु डबराल

Friday, November 6, 2009

पत्रकारिता जगत के सूर्य थे जोशी जी...

पत्रकारिता को एक अलग पहचान देने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी हमारे बीच नही रहे... ये क्षति पूरे पत्रकारिता जगत की है... अपनी लेखनी से पत्रकारिता का लोहा मनवाने वाले जोशी जी बहुत ही सरल शब्दों में अपनी बात कह जाते थे... मैं खुद उनकी लेखनी के दीवानों में से एक हूँ...
जोशी जी के पदचिन्हों पर चलने वाले कई पत्रकारों के लिए ये बड़ा झटका है... लेकिन वो एक ऐसी राह बना कर गए है, जो पत्रकारिता को एक नयी दिशा देगी... उनके आदर्शो पर चलने वाले पत्रकार हमेशा उनके विचारों को जीवित रखेंगे...
बस दिल यही कहता है -
कौन कहेता है जोशी जी नही रहे,
रूह रुख़सत हुई है, शख्शियत हमेशा जवां रहेगी...

भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे और उनके परिवार को इस घोर दुःख को सहने का बल प्रदान करे...


- हिमांशु डबराल

Wednesday, November 4, 2009

रास्ते-रास्ते.


रास्ते-रास्ते, रास्ते सिर्फ रास्ते...
वास्ते-वास्ते जाने किस वास्ते,
जागते-सोते, सोते-जागते
रास्ते-रास्ते, रास्ते सिर्फ रास्ते...

रात के सूने प्रहर में,
सन्नाटे को खत्म करते
सहर की और चलते
उजाले में हसी वादियों में,
ठण्ड की कपकपाहट, सर्द समां में,
ओस की बूंद, हवा के बहाव में,
रह गए हम, वादियों को ताकते
रास्ते-रास्ते, रास्ते सिर्फ रास्ते...

सर्द मौसम में, गर्म ख्यालों में,
चाय के प्यालों में, लाल से गलों में,
कपकपाते होठों की मुस्कान के साथ,
सफ्फाक दिलों को बहलाने के वास्ते,
रास्ते-रास्ते, रास्ते सिर्फ रास्ते...

मील के पत्थर गिनते हुए,
राह के काटें चुनते हुए,
ख्वाब में ख्वाब बुनते हुए,
हवाओं के सुर सुनते हुए,
एक धुन बनाने के वास्ते...
रास्ते-रास्ते, रास्ते सिर्फ रास्ते...

-हिमांशु डबराल

Monday, October 26, 2009

रुला दिया है मुझे...


तेरी यादों की चादर ओढे मै सो तो रहा था,
पर ख्वाबो में तेरी यादों ने फिर जगा दिया
है मुझे...

मेरे दिल ने तुझे बेवफा भी न कहा था,
पर मेरे अहसासों ने मुझसे चुरा लिया
है तुझे...

अब इन धडकनों का मैं क्या करू जो तेरे नाम से धड़कती है,
मैंने तों जीवन की डोर को ही थमा दिया
है तुझे...

वीरानियों में, वीरां मकां में मैं रह तो रहा था,
तेरे खलूस ने वीरां बना दिया
है मुझे...

और क्या कहूँ तुझसे ऐ दिलनशी,
तेरी खुशबु ने मेरे जहाँ को महका दिया...

अँधेरे रास्तों में मै चल तो रहा था,
तेरे नूर ने सारे रास्ते को जगमगा दिया...

भीड़ के चहरों में मै तुझे ढूंढ़ तो रहा था,
लेकिन हर चहरे ने अपनालिया है
तुझे...

इश्क के तूफां से मै गुजर तो रहा था,
पर तेरी हवा ने रास्तों से भटका दिया
है मुझे...

तेरे झूठे वादों पर मै जी तो रहा था,
तेरी बेवफाई ने पागल बना दिया
है मुझे ...

मै अपनी सिसकियों पे मुस्कराहट का पर्दा डाल तो रहा था,
पर तेरी हसीं ने फिर रुला दिया
है मुझे...

-हिमांशु डबराल

himanshu dabral


Sunday, October 18, 2009

दिवाली या दिवाला ?

दीपावली’, एक पावन त्यौहार। जिसके आते ही दीप जलाये जाते हैं, खुशियां मनायी जाती हैं, तरह-तरह कीमिठाईयां, पकवान, पटाखे और नये कपड़े खरीदे जाते हैं, घरों को साफ किया जाता है। लेकिन आज दिवाली आनेपर आम लोगों के चेहरे उतरे नजर रहे हैं। कारण है महंगाई, महंगाई ने आज आम आदमी की कमर तोड़ कररख दी है।

दिवाली आते ही जेबें ढीली होने का डर सताने लगता है। सभी चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। त्यौहार आने से पूरेघर का बजट बिगड़ जाता है पर करें भी तो क्या करें। बढ़ती मंहगाई ने अमीर गरीब के बीच की खाई को औरगहरा कर दिया है। अब गरीब आदमी की तो मन गई दिवाली। वो तो सिर पकड़कर बैठ जाता है कि दिवाली कैसेमनाए। और अगर मंहगाई से बच गए तो नकली मिठाई, नकली पटाखे आदि आपका दीवाला निकाल देंगे और रही-सही कसर प्रदूषण और शराबी लोग पूरी कर देंगे। अब आप ही सोचिए
दिवाली या दिवाला

-हिमांशु डबराल

Monday, October 12, 2009

युवराज के नाटक...


आप सोच रहे होंगे कि युवराज कौन? हम इस देश की सत्तारूढ़ पार्टी के युवराज की बात कर रहे हैं। पुराने समय में राजा-महाराजा हुआ करते थे और उनके पुत्रों को युवराज कहा जाता था। रजवाड़े खत्म हो गए लेकिन आज के आधुनिक दौर में भी युवराज होते हैं। अब युवराज हैं तो भइया सुरक्षा भी ज्यादा चाहिए। जहां जाते हैं पूरा काफिला साथ चलता है। उनकी सुरक्षा के कारण आम जनता को बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और राहुल बाबा हीरो बन जाते हैं। किसी गांव में गए और गांव में सुरक्षाबलों का तांता लग जाता है। लोगों को अपने ही घरों को जाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

युवराज हैंडपम्प से नहा लें तो यह खबर है और हजारों लोग यमुना के जहरीले पानी से नहाते हैं वो खबर नहीं है। ट्रेन से जाएं तो यह खबर है और गांवों में लोग आज भी कोसों पैदल चलने को मजबूर हैं, यह खबर नहीं है। ऐसी ही न जाने कितनी बातें हैं जो युवराज के जाने से खबर बन जाती है। देश की मूलभूत समस्याओं को उजागर करने की जगह मीडिया राहुल गांधी के नाटकों को तरजीह दे रहा है।

कुछ दिन पहले राहुल गांधी जेएनयू पहुंचे। लाल टापू में उनके जाने से हवाएं गर्म हो गईं। जगह-जगह पोस्टर लगाए गए। कहीं पोस्टर में राहुल चाय पीते नजर आए तो कहीं युवराज के आगमन व स्वागत के पोस्टर थे। लाल टापू का यह दौरा एनएसयूआई के ही लोगों द्वारा कराया गया। युवराज के आने से पहले जेएनयू छावनी में तब्दील कर दिया गया। इतनी सुरक्षा तो तब भी नहीं दिखी थी जब प्रधानमंत्री यहां आए थे लेकिन जब राहुल गांधी वामपंथिओं के गढ़ पहुंचे तो उनके लिए 600 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी थे। छात्रों से ज्यादा तो सुरक्षाबल नजर आ रहा था। अब सवाल यह उठता है कि जो सुरक्षा प्रधानमंत्रियों के लिए भी नहीं होती तो राहुल के लिए क्यों। न तो राहुल देश के प्रधानमंत्री हैं और ना ही सरकार में मंत्री। केवल गांधी होने के कारण क्या इतनी सुरक्षा सही है?

जेएनयू में कई छात्रों के तीखे तेवरों का सामना भी राहुल को करना पड़ा। शुरुआती औपचारिक भाषणों के बाद राहुल जैसे ही मंच पर पहुंचे, सामने बैठे स्टूडेंट्स के एक ग्रुप ने राहुल को काले दुपट्टे दिखाते हुए नारे लगाने शुरू किए- ‘84 के दंगाइयों को एक धक्का और दो। फेक एनकाउंटर करने वालों को एक धक्का और दो।’ इन सबके बीच राहुल ने बोलना शुरु किया और छात्रों के सवालों के जवाब भी दिए। एक छात्र ने सवाल पूछा कि उसने फ्रेंच भाषा में बी.ए. किया है और उसे तमाम एमएनसी से भी ऑफर हैं लेकिन प्राइवेट नौकरी में सिक्युरिटी नहीं है इसलिए वो सरकार के साथ काम करना चाहता है। राहुल ने उस छात्र को मंच पर बुलाकर गले लगाया और एनएसयूआई के नेताओं से कहा कि इनका बायोडेटा ले लीजिये, देखते हैं। लेकिन राहुल जी इस देश में लगभग 4 करोड़ से ज्यादा शिक्षित युवा बेरोजगार हैं; किस-किस का बायोडेटा लेंगे राहुल जी? चलिए शायद इस प्रकरण से एक बेरोजगार को रोजगार मिल जाए…।

कभी दलित के यहां रात गुजारना तो कभी भीड़ में जाकर बात करना और इसके कारण उनके सुरक्षा बल आम लोगों को परेशान करते हैं। भीड़ को हटाने के लिए धक्का मारा जाता है। अरे युवराज जी आप आम आदमी की मुश्किलें सुलझाने जाते हैं या बढ़ाने? चलिये युवराज जी बातें बनाने में तो आप माहिर हैं लेकिन बातों की जगह जमीनी स्तर पर कुछ कार्य भी करें तो अच्छा होगा।।

-हिमांशु डबराल

Sunday, October 11, 2009

गालियां या फैशन


एक समय था जब भारतीय समाज को उसकी सभ्यता और मधुभाषिता के लिए जाना जाता था। समाज में कोई किसी के लिए अपशब्दों का प्रयोग नहीं करता था और अगर कोई बोल भी दे तो उसे समाज में बुरा माना जाता था। धीरे-धीरे समय बदला लेकिन गालियों को सामाजिक रूप से कभी स्वीकारा नहीं गया। लेकिन आज के समाज को ना जाने क्या हो गया है? गालियों को धीरे-धीरे सामाजिक रूप से स्वीकारा जा रहा है। खासकर महानगरों में गालियां देना एक आम बात हो गई है और यह स्टेटस सिंबल बनतीं जा रहीं हैं, जो गाली नहीं देता वो गांवों का समझा जाता है। स्कूलों के बच्चों को ही देखा जाए जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते हैं, आपको गालियां देते नजर आ जाएंगे और अगर आप उन्हें टोकेंगे तो आप पर भी गलियों की बौछार शुरू हो जाएगी। आजकल बातचीत में प्रभाव भी गालियों से ही पड़ता हैं। इसे क्या कहा जाए? क्या हमारा समाज मानसिक रूप से दिवालिया होता चला जा रहा है?लड़के तो छोड़िए लड़कियां भी गालियां देने में पीछे नहीं हैं। आजकल के युवा गालियां देने के बाद शर्मिंदगी के बजाय अपने आप को बड़ा गर्वान्वित महसूस करते हैं। ये लोग आते तो यहां पढ़ने के लिए हैं और शायद ये जहां से आते हैं वहां भी गालियां सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं हैं। फिर भी यहां आकर गालियां देते हैं। कारण पूछा जाए तो इनके अपने तर्क हैं। कोर्इ्र कहता है कि ये सब तो चलता है…, अरे गालियां तो सभी देते हैं…, दिक्कत क्या है…? यह तो फैशन है, भाई। ऐसे जबावों को सुनकर बड़ा अजीब लगता है। आज का युवा कहीं भी गाली देने से नहीं हिचकिचाता, चाहे वो स्कूल-कॉलेज हों या कोई भी सार्वजनिक स्थल।गालियों को फैशन बनाने के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है – आप, हम या हमारा समाज? शायद हमें हर बात को हल्के में लेने की आदत हो गई है। चलो कोई बात नहीं…, हम क्या करें…, बिगड़ैल है…, हमें तो नहीं दे रहा…आदि कहकर बात टाल देते हैं। कभी हम किसी को टोकते नहीं हैं। यहां तक कि महिलाओं और बच्चों के सामने गाली देने वाले को भी नहीं टोका जाता।अभी ये हाल है तो हम आने वाली पीढ़ियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं। कहीं गालियों का चलन न हो जाए इसके लिए मिलकर प्रयास करना होगा ताकि गालियों को सामाजिक मान्यता न मिल पाए और गाली देने वालों को भी समझाना होगा कि ये फैशन नहीं मानसिक दिवालियापन है। बाकी आप के ऊपर है कि आप क्या समझते हैं-

गालियां या फैशन?

-हिमांशु डबराल

Thursday, September 24, 2009

बदलते रिश्ते

रिश्ते ये रिश्ते कितने अजीब ये रिश्ते ...
कभी बनते, कभी बिगड़ते ये रिश्ते
तों कभी शांत रहते ये रिश्ते
अलग-अलग चहरे में सामने आते
कभी माँ की, कभी पिता की याद दिलाते
तो कभी बहन बनकर, कभी भाई बनकर सामने आते ये रिश्ते
दोस्त बनकर हमे हसाते और कभी रूलाते ये रिश्ते...

कुछ रिश्ते बड़े अजीब होते है
हँसते-हँसते हम कभी रोते हैं,
शायद वो रिश्ते हमे बड़े अजीज होते हैं...

क्या कहूँ उस रिश्ते को, जो कभी सब रिश्तों से बड़ा हो जाता है,
कभी-कभी तों सब रिश्तों के सामने दिवार बन खड़ा हो जाता है,
है हम सोचते है किसे पाए किसे खो जाए...
फिर सोचता है मैं
कितने बदल जाते है ये रिश्ते
कभी दूर तो कभी पास आते है ये रिश्ते,
कभी रिश्तों को ही भुलवाते है ये रिश्ते,
कभी आपस में उलझ जाते है ये रिश्ते,
तभी शायद कुछ अजीब है ये रिश्ते...
रिश्ते ये रिश्ते, कितने आजीब ये रिश्ते...



-हिमांशु डबराल

Monday, September 14, 2009

हिंदी हूँ मैं...

कल रात जब मैं सोया तो मैंने एक सपना देखा, जिसका जिक्र मै आपसे करने पर विवश हो गया हुं...सपने में मै हिंदी दिवस मानाने जा रहा था तभी कही से आवाज आई...रुको! मैने मुड़ के देखा तों वहा कोई नही था...मै फिर चल पड़ा...फिर आवाज आयी...रुको! मेरी बात सुनो...मैने गौर से सुना तो लगा की कोई महिला वेदना भरे स्वरों में मुझे पुकार रही हो...मैने पूछा आप कौन हो? जबाब आया...मैं हिंदी हुं... मैने कहा कौन हिंदी? मै तो किसी हिंदी नाम की महिला को नही जानता...दोबारा आवाज आई - तुम अपनी मातृभाषा को भूल गए??? मेरे तों जैसे रोगटे खड़े हो गए...मैने कहा मातृभाषा आप! मै आपको कैसे भूल सकता हूँ...फिर आवाज आयी 'जब तुम सब मुझे बोलने में शर्म महसूस करते हो, तो भूलना न भूलना बराबर ही है'...
फिर हिंदी ने बोलना शुरू किया- 'तुम मेरी शोक सभा में जा रहे हो न??? मैने कहा ऐसा नही है ये दिवस आपके सम्मान में मनाया जाता है... हिंदी ने कहा - नही चाहिए ऐसा सम्मान... मेरा इससे बड़ा अपमान क्या होगा की हिन्दुस्तानियों को हिंदी दिवस मानना पड़ रहा है...

उसके बाद हिंदी ने जो भी कहा वो वो इन पक्तियों के माध्यम से प्रस्तुत है...

हिंदी हूँ मैं! हिंदी हूँ मैं..
भारत माता के माथे की बिंदी हूँ मै

देवों का दिया ज्ञान हूँ मै,
घट रही वो शान हूँ मै,
हिन्दुस्तानियों का इमान हूँ मै॥
इस देश की भाषा थी मै,
करोडो लोगो की आशा थी मै

हिंदी हूँ मैं! हिंदी हूँ मैं..
भारत माता के माथे की बिंदी हूँ मै

सोचती हूँ शायद बची हूँ मै,
किसी दिल में अभी भी बसी हूँ मै,
पर अंग्रेजी के बीच फसी हूँ मै...

न मनाओ तुम मेरी बरसी,
मत करों ये शोक सभाएं,
मत याद करो वो कहानी...
जो नही किसी की जुबानी

सोचती थी हिंद देश की भाषा हूँ मै,
अभिव्यक्ति की परिभाषा हूँ मैं,
सच्ची अभिलाषा हूँ मैं,
लेकिन अब निराशा हूँ मैं...

जी हाँ हिंदी हूँ मैं
भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ मैं...
इस सपने के बाद मै हिंदी दिवस के किसी कार्यक्रम में नही गया...घर में बैठ कर बस यही सोचता रहा की क्या आज सच में हिंदी का तिरस्कार हो रहा हैं??? क्या हमे अपनी मातृभाषा के सम्मान के लिए किसी दिन की आवश्यकता है??? शायद नही...
मेरा तो यही मानना है की आप अपनी मातृभाषा को केवल अपने दिलों-जुबान से सम्मान दो...और अगर ऐसा सब करे तो हर दिन हिंदी दिवस होगा...
जय हिंदी...
.
-हिमांशु डबराल

Thursday, September 10, 2009

रंग

रंग बदल जाते है धुप में, सुना था
फीके पड़ जाते है, सुना था
पर उड़ जायेंगे ये पता न था!
हाँ ये रंग उड़ गए है शायद...
जिंदगी के रंग इंसानियत के संग,
उड़ गए है शायद...

अब रंगीन कहे जाने वाली जिंदगी, हमे बेरंग सी लगती है,
शक्कर भी हमे अब फीकी सी लगती है...

कहा है वो रंग???
जो रहेते थे रिश्तो के संग
बाप की डाट और माँ के दुलार के रंग,
खेलने के घाव और बचपन की नाव के रंग,
पडोसी की चाय के, बुजुर्गो के साये के रंग,
हाथों में वो हाथ, दोस्तों के साथ के वो रंग,
उड़ गए है शायद...

तितलियों को पकड़ते नन्हे हाथो के रंग,
बच्चो के खेल और बडो के मेल के वो रंग
चटपटी सी चाट, घर की पुरानी खाट के रंग,
मानिंद चलती हवाओ में खुशबु के रंग,
उड़ गए है शायद...

कोशिश करो की ये रंग उड़ने न पाए
क्योकि ये रंग उड़ गए तों...
फिर न रहेगी रंगीन मुस्कान, रंगीन यौवन, रंगीन जिंदगी॥
छोटी-छोटी खुशियों की वो ताल,
छीन न जाये उड़ न जाए, उड़ न जाये...
रंग भरो जिंदगी में जिंदगी के,
संग उडो जिंदगी के रंगों में॥
हसों और मुस्कुराओ और गाओ
रंगी समां, रंगी जहा बनाओ...

-हिमांशु डबराल

Tuesday, September 8, 2009

सच बोलने की सजा ...

आज फिर मैंने सच बोलने की सजा पाई...

उस शाम,

बैठा था माँ की गोद में सर रखकर,

माँ सहला रही थी आँचल से मेरा माथा कि,

हौले से पूछ बैठी...

बेटा , आगे का क्या है इरादा ?

मेरा तन - मन पुलक उठा,

एक अजीब से जोश से भर उठा,

और मै हौले से बोल उठा,

माँ ...!

मेरा मन नहीं लगता प्रौद्योगिकी में,

गणित के सूत्रों और सिद्धांतों की भौतिकी में,

मेरा दिल तो लगा है राष्ट्रप्रीति में,

इसलिए हे माँ मुझे जाना है राजनीति में...

माँ तुनक उठी,

मुझ पर जोरों से बिफर उठी,

हल्के गुस्से में बोल उठी,

क्या इसीलिए पढाया तुझे विषम परिस्थिति में ?

या फिर गोबर भरा है तेरी मति में,

बाबू, चाहे जिंदगी गुजार लो खेती में,

मगर दोबारा मत कहना कि,

मुझे जाना है राजनीति में ...

इतना कहकर माँ ने मुझे हल्की सी चपत लगाईं,

मेरी आँखें न जाने क्यों डबडबा आई,

और इस तरह एक बार फिर,

मैंने सच बोलने की सजा पाई ...!


सर्वाधिकार सुरक्षित @ 'जय'

http://www.shagird-e-rekhta.blogspot.com/

Thursday, August 20, 2009

एक दिन की देशभक्ति


आप सोच रहे होगें कि ये एक दिन की देशभक्ति क्या है? ये वो है जो आपके और हमारे अन्दर 15 अगस्त के दिन पैदा होती है और इसी दिन गायब हो जाती है। जी हाँ हम लोग अब एक दिन के देशभक्त बनकर रह गये है।
एक समय था जब हर व्यक्ति के अन्दर एक देशभक्त होता था, जो दो के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता था। लेकिन आज के इस आधुनिक समाज को न जाने क्या हो गया है। देशभक्ति तो बस इतिहास के पन्नो में दफन हो कर गयी है। आज हर तीज त्योहारों की ड्राइविंग सीट पर बाजार बैठा है। और हमारा स्वतन्त्रता दिवस भी बाजार के हाथों जकड़ा नजर आ रहा है।15 अगस्त भी बाजार के लिये किसी दिवाली से कम नहीं आपको बाजार मे छोटेबड़े तिरंगे, तिरंगे के रंग वाली पतंगे और न जाने क्या क्या स्वतन्त्रता दिवस के नाम पर बिकता नजर आ जायेगा। जिसको देखों अपने हाथ में तिरंगा लिये धूमता रहता हैं… भले ही उसके मन मे तिरंगे के लिये सम्मान हो न हो… खैर वो भी क्या करे दिखावे का जमाना है। यदि यही सब चलता रहा तो आने वाली पी़ढी शायद ही भगत सिंह, चन्द्र्शेखर के बारे मे जान पायेगी…
15 अगस्त का एक वाकया मुझे याद आता है मैं घर से आजादी की वर्षगांठ मनाने जा रहा था। मैने कुछ बच्चों को हाथ में तिरंगा लिये स्कूल जा रहे थे। तभी एक बच्चे के हाथ से तिरंगा गिर गया। भीड़ की वजह से वो उसे उठा नहीं पा रहा था। तिरंगे के उपर से न जाने कितने लोग गुजर गये… लेकिन किसी ने उसे उठाया नहीं। आजादी के प्रतीक का यह अपमान देख कर मुझे शर्म सी महसुस हो रहीं थी… पहले जाकर तिरंगे को उठाया और आगे जा रहे बच्चों को दिया… दूसरा बच्चा बोला ये तो गन्दा हो गया है… 5 रूपये का ही है… नया ले लेगें…
हमने अपने बच्चों को तो देशभक्ति और तिरंगे का सम्मान करना नहीं सिखाया। लेकिन वहां से गुजर रहे और लोगो को देख कर लग रहां था कि हम खुद भी नहीं समझे… आज उसी तिरंगे को उठाने में हमे शर्म महसूस हो रही है जिसे फहराने के लिये शहीदों ने हंसते हंसते अपनी जान दे दी।
हमारे नेताओं को भी देशभक्ति ऐसे ही मौकों पर याद आती है। ऐसे ही दिन शहीदों की तस्वीरें निकाली जाती है… उन पर मालायें चढाई जाती है… देशभक्ति के राग अलापे जाते है। उसके बाद शहीदों की ये तस्वीरें किसी कोने में धूल फॉकती रहती हैं। इनकी सुध तक नही ली जाती। ये कैसी देशभक्ति है, केवल शहीदों के नाम पर स्मारक बनवाना और उस पर माला चढाना ही काफी नहीं है। जिस तरह माली की हिम्मत नहीं कि वो फूले खिला दे, उसका काम तो पौधे के लिये उचित माहौल तैयार करना है… उसी तरह हमें मिलकर देशप्रेम का ऐसा माहौल तैयार करना होगा की सबके मन में देशभक्ति रूपी फूल हमेसा खिलता रहे। ये नेता भी आजादी के असली मायनों को समझें और हम भी समझें तभी ये आजादी हमारे लिये सार्थक होगी।
हम सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। हम अपने परिवार के लिए तो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते है लेकिन हम भूल जाते है कि दो के प्रति हमारी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं, जिन्हे हममें से कोई भी नही निभाना चाहता। हर कोई अपने में खोया है, पता नहीं दो के बारे में कोई सोचता भी है या नहीं, मै और कुछ कहना नहीं चाहता… लेकिन एक भोर याद आ रहा है
बर्बाद ए गुलिस्तां के लिये एक शाख पे उल्लू काफी था
हर शाख पे उल्लू बैठा है अन्जामे गुलिस्तां क्या होगा?
-हिमांशु डबराल

Sunday, August 2, 2009

शायद पत्रकार हूँ मैं....

क्या कहूँ कौन हूँ मैं???
शायद इंसानों की भीड़ का हिस्सा,
या उस भीड़ में सबसे जुदा
शब्दों का काश्तकार हूँ मैं,
शायद पत्रकार हूँ मैं...
एक आईना जो बहुत कुछ दिखता है,
कभी हकीकत तो कभी झूठ से भी मिलवाता है,
कभी-कभी तो धुंधुला भी पड़ जाता है,
उस आईने का व्यवहार हूँ मैं,
शायद पत्रकार हूँ मैं...
लोकतंत्र में रहते हुए
स्वयं को एक स्तम्भ कहते हुए,
जनता के इस तंत्र का पहरेदार हूँ मैं,
शायद पत्रकार हूँ मैं...
बाजारीकरण के इस दौर में
आगे बढ़ने की होड़ में,
टीरपी की दौड़ में,
पत्रकारिता से समझौता करता
एक नया बाज़ार हूँ मैं,
शायद पत्रकार हूँ मैं...
फिर भी पत्र को एक आकार देता हूँ
किसी को अन्धा तों किसी को आखे चार देता हूँ,
किसी को काली दुनिया तों किसी को रंगीन स्वप्नहार देता हूँ,
नए नए समाचारों के बीच,
एक अलग विचार हूँ मैं,
शायद पत्रकार हूँ मैं...
लकिन कभी खुद को कोसता,
अपने भीतर पत्रकारिता की लौ को खोजता,
रोज नई आधियों के बीच डगमगाती उस लौ का,
हिस्सेदार हु मैं,
शायद पत्रकार हूँ मैं...
- हिमांशु डबराल

Thursday, July 30, 2009

इल्जाम

वो इस कदर गुनगुनाने लगे है,
के सुर भी शरमाने लगे है...

और हम इस कदर मशरूफ है जिंदगी की राहों में,
के काटों पर से राह बनाने लगे है...

इस कदर खुशियाँ मानाने लगे है,
के बर्बादियों में भी मुस्कुराने लगे है...

नज्म एसी गाने लगे है,
की मुरझाए फूल खिलखिलाने लगे है...


और चाँद ऐसा रोशन है घटाओ में,
की तारे भी जगमगाने लगे है,
कारवा बनाने लगे है...

और लोग अपने हुस्न को इस कदर आजमाने लगे है,
के आईनों पे भी इल्जाम आने लगे है...

"हिमांशु डबराल"