Tuesday, September 8, 2009

सच बोलने की सजा ...

आज फिर मैंने सच बोलने की सजा पाई...

उस शाम,

बैठा था माँ की गोद में सर रखकर,

माँ सहला रही थी आँचल से मेरा माथा कि,

हौले से पूछ बैठी...

बेटा , आगे का क्या है इरादा ?

मेरा तन - मन पुलक उठा,

एक अजीब से जोश से भर उठा,

और मै हौले से बोल उठा,

माँ ...!

मेरा मन नहीं लगता प्रौद्योगिकी में,

गणित के सूत्रों और सिद्धांतों की भौतिकी में,

मेरा दिल तो लगा है राष्ट्रप्रीति में,

इसलिए हे माँ मुझे जाना है राजनीति में...

माँ तुनक उठी,

मुझ पर जोरों से बिफर उठी,

हल्के गुस्से में बोल उठी,

क्या इसीलिए पढाया तुझे विषम परिस्थिति में ?

या फिर गोबर भरा है तेरी मति में,

बाबू, चाहे जिंदगी गुजार लो खेती में,

मगर दोबारा मत कहना कि,

मुझे जाना है राजनीति में ...

इतना कहकर माँ ने मुझे हल्की सी चपत लगाईं,

मेरी आँखें न जाने क्यों डबडबा आई,

और इस तरह एक बार फिर,

मैंने सच बोलने की सजा पाई ...!


सर्वाधिकार सुरक्षित @ 'जय'

http://www.shagird-e-rekhta.blogspot.com/

1 comment:

  1. यार तुमने तो सच बोलने की सजा पाई है | यहाँ तो लोग झूठ भी इतने सलीके से बोलते हैं कि हम ऐतबार करते हैं | यह विडम्बना नहीं तो और क्या है ???

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