Tuesday, March 6, 2012

मौज-मस्ती से कहीं गहरा है होली का महत्व...


पूरे साल बेसब्री से इंतजार कराने वाला होली का त्योहार सिर्फ रंग-उमंग तक ही सीमित नहीं है बल्कि भारतीय समाज और जनमानस में इसका बहुत गहरा महत्व है। इस त्योहार का महत्व हर तबके के लिए अलग-अलग है। युवाओं के लिए जहां यह रंग-बिरंगी मौज-मस्ती का पर्व है वहीं किसानों के लिए इसका महत्व उनकी फसल से जुड़ा है। सामाजिक लिहाज से यह लोगों को आपसी राग-द्वेष भूलकर एक दूसरे को रंग लगाने और मन को तरंगित करने का त्योहार है। सभी ओर लोग प्यार, मस्ती और एकता की बहुरंगी खुमारी में डूबे नज़र आते हैं।
प्राचीन परंपरा के लिहाज से होली का त्योहार फागुन के महीने में शुक्ल अष्टमी से आरंभ होकर पूर्णिमा तक पूरे आठ दिन होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है। रंगों से लेकर कीचड़ और धूल तक में लथेड़ने की होली खेलने की शुरुआत अष्टमी से ही होती है। होलिका दहन की तैयारी भी यहीं से शुरु हो जाती है। इस पर्व को नवसंवत्सर के आगमन और वसंतागमन के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ कहा जाता है। वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ अर्थात नई फसल की पैदावार में से अनाज को अग्नि को समर्पित करके प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जताने का साधन माना जाता था। उसी के अनुरूप आज भी होलिका दहन के दौरान उसकी आग लपटों में गेहू की बालियां अथवा चने के होले भूनकर खाए जाते हैं। पुराणों के अनुसार ऐसी भी मान्यता है कि होलिका दहन दरअसल भगवान शंकर द्वारा अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर देने का प्रतीक है और तभी से इसका प्रचलन है।
लेकिन होली जलाने के पीछे सबसे ज्यादा प्रचलित हिरण्यकष्यप और उसके पुत्र प्रह्लाद की कथा है। हिरण्यकष्यप अपने बल के घमंड़ में स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में भगवान का नाम तक लेने पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन हिरण्यकष्यप का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से परेशान होकर उसने उसे अनेक बार कठोर से कठोर दंड़ दिये, कई बार उसे मारने की भी कोशिश की परंतु वो प्रह्लाद की ईश्वरीय आस्था को टस से मस कर सका। प्रह्लाद हर बार हरि कृपा से बच निकलता। अंततः हिरन्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाया, जिसको वरदान था कि वो अग्नि में भस्म नहीं हो सकती। होलिका, प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठती है लेकिन होलिका जल जाती है और भक्त प्रह्लाद जीवित रह जाता है। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन को मनाया जाता है। अगर प्रतिकात्मक अर्थ में देखें तो प्रह्लाद का अर्थ होता है आनंद। उत्पीड़न और बुराई का प्रतीक होलिका(जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम और उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद(आनन्द) हमेशा रहता है।
पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर या जहां भी होलिका दहन के लिये लकड़ी इकट्ठी की गयी हों वहां होलिका दहन किया जाता है। शाम के समय में ज्योतिषियों द्वारा निकाले गये मुहूर्त पर होलिका दहन किया जाता है। होलिका दहन समाज की सारी बुराइयों के अंत का प्रतीक है।
पर्व का अगला दिन रंगों में रंगने का दिन है। इस दिन लोग एक दूसरे को गुलाल और रंग लगाते हैं, साथ ही सुबह से ही मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने का सिलसिला शुरू हो जाता है। ईर्ष्या-द्वेष को भुलाकर सभी प्रेम पूर्वक गले मिलते हैं। भारत विभिन्नताओं का देश है,यहां हर जगह होली के अलग-अलग रंग देखने को मिलते हैं। कहीं रंगबिरंगे कपड़े पहने होली की मस्ती में नाचती गाती टोलियां नज़र आती हैं। तो कहीं बच्चे हंसते खेलते पिचकारियों से रंग छोड़ते।
यूँ तो भारत के हर कोने में होली को अपने ही अलग अंदाज़ में मनाया जाता है लेकिन ब्रज की होली, बरसाने की लठमार होली और उत्तराखण्ड की बैठकी होली अपने आप में कुछ ख़ास है। बरसाने की लठमार होली का अपना ही मज़ा है। पुरूष, महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों और कपड़े से बनाये गये कोड़ों से मारती हैं। मथुरा वृन्दावन में तो पन्द्रह दिनों तक होली का त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। साथ ही कई जगहों पर कीचड़ और गोबर से भी होली खेली जाती है, हांलाकि होली खेलने का यह तरीका बड़ा विचित्र है लेकिनदेष मेरा रंगरेज़ ये बाबू
होली के अवसर पर तरह-तरह की मिठाइयां और पकवान बनाये जाते हैं, जिसमें खासतौर पर गुझिया बनायी जाती है। उत्तर भारत में बेसन के सेव और दहीबड़े भी हर परिवार में बनाये और खिलाये जाते हैं। लेकिन होली का ज़िक्र हो और ठंडाई की बात ना हो ऐसा शायद ही संभव है। होली में भांग और ठंडाई विषेश पेय हैं। भारत में होली के दिन से ही हिन्दी नववर्ष का शुभारम्भ हो जाता है। होली का यह त्यौहार अपनी बुराइयों का दहन कर ज़िन्दगी के रंगों में रंग जाने की सीख देता है।


-हिमांशु डबराल
himanshu dabral

No comments:

Post a Comment