Saturday, February 25, 2012

टाइम नही मिलता...


शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है,

जिस डाल पर बैठे हो वो टूट भी सकती है...


बशीर बद्र कि ये पंक्तियाँ उन सभी पर कटाक्ष है जो सफलता पाने के चक्कर में पुराने रिश्तों को भूल जाते है...या उन्हें समय नही देते...

हर रिश्ते को समय देना ज़रूरी होता है नहीं तो रिश्तों में शून्यता आ जाती है...लेकिन कई बार हमें जिंदगी में रिश्तों के लिए टाइम नहीं मिलता...हम अपनी नयी दुनिया में इतना खो जाते है कि हमे पुराने रिश्ते बोझ लगने लगते है...और हम औपचारिकता के नाते इन्हें ढोते जाते हैं...


हमारे लिए नए रिश्तों के आगे पुराने रिश्तों कि चमक धुंधली पड़ जाती है... हमारे पास दूर बैठे वर्चुअल दोस्तों से फेसबुक, मेसेज या ट्विटर में बतियाने का खूब टाइम है लेकिन पास बैठे माँ बाप, भाई-बाहें या मुहल्ले के दोस्तों से बात करने का टाइम नही मिलता... हमें अपने मतलबी दोस्तों के साथ मैक-डी में बर्गर और आईस टी पीने का टाइम है लेकिन घर वालों के साथ शाम कि चाय तक पीने का टाइम नही मिलता...और हममे से कईयों के पास तो किसी भी रिश्तें के लिए समय नहीं है...आगे बढ़ने और पैसा कमाने कि होड़ ने हमे सवार्थी बना दिया है...ऐसे में हमारी प्राथमिकताएं बदल जाती है...जो रिश्तें कभी हमारे लिए सबसे जरुरी होते थे वो अब मात्र नाम के लिए रह जाते है...बस होली दिवाली या किसी ओकेजन पर एक फोन या एक मैसेज कर देने के बाद हम समझते हैं कि निभ गये रिश्तें...


क्या सचमुच हमारे पास टाइम नहीं है या हम टाइम निकलना नहीं चाहते?? ये सवाल ऐसे सवाल है जिनका जवाब अगर हम ईमानदारी से दे तो जो हकीकत सामने आती है वो शायद इतनी कड़वी है कि हममे से ज्यादातर लोग इसे मानने को तैयार नहीं होंगे...वैसे इंसानी फितरत है कि हम अपनी गलती को जल्दी से नहीं मानते...

क्या हम अपने व्यस्त समय में से कुछ पल अपने अपनों के नाम नही कर सकते? थोडा समय देकर अपने रिश्तों को तरोताज़ा नही रख सकते? शायद हमारे कुछ पल हमारे अपनों के होंठो पर खुशी ला दे और उन्हें ये एहसास दिलाये कि वो हमें आज भी अज़ीज़ हैं...


कभी खाली वक्त में, छुट्टी के दिन या अपनी अति व्यस्त दिनचर्या में से कुछ वक्त निकालकर रिश्तों को फिर से ताज़ा करें...कुछ देर पुराने दिनों और अपनों कि छाव में समय बिताए...आप खुद भी सुकून महसूस करेंगे...और रिश्तें रिश्तें ही रहेंगे...

मुझे वसीम बरेलवी कि कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं है, जो अक्सर सोचने पर मजबूर करती है-


मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो ,

के मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो...


-हिमांशु डबराल

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