Saturday, December 31, 2011

नया साल मुबारक हो...

आप सभी को सपरिवार नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें...नूतन वर्ष आपके जीवन में नयी उमंग नयी तरंग और ढेर सारी खुशियाँ लेकर आये...

-हिमांशु डबराल

Friday, December 2, 2011

वेब का इंडिया टीवी या उसका भी गुरु भास्कर.कॉम...

खबर आयी है की भारत में सबसे ज्यादा देखे जाने वाली वेबसाइट भास्कर.कॉम हो गयी है....मैं काफी पहले से भास्कर.कॉम पढ़ रहा हूँ...शायद जब से शुरू हुई तब से ही, ख़बरों के लिए मेरी पहली पसंदीदा वेबसाइट भास्कर ही है...लेकिन पिछले कुछ समय में लग रहा है की मनोहर कहानियां, सरस सलिल और फुटपाथ पर बिकने वाली किताबों का स्टाफ भास्कर में आ गया है...अन्धविश्वास, अश्लीलता, फूहड़ता के प्रदर्शन की होड़ लगी हुई है...कुछ भी लिख देते है, बिना सोचे समझे...शायद ऑफिस में प्रतियोगिता होती होगी...कौन सबसे फूहड़ ओर अश्लील हेडिंग लिखेगा...फिर ईनाम भी मिलता होगा...पता नही प्रिंट के इतने बढ़िया अख़बार का नाम भास्कर.कॉम वाले क्यों ख़राब कर रहे है...दैनिक भास्कर आज भी अच्छी खबर और अच्छे सम्पादकीय के लिए जाना जाता है...लेकिन .कॉम वालों ने तो कसम खायी है की इसका नाम ख़राब कर कर ही दम लेंगे...

काफी दिनों पहले प्रेस क्लब में बैठा था तो भास्कर.कॉम की बात चल रही थी...मेरे एक मित्र कह रहे थे की 'भास्कर.कॉम में मिर्च-मसाला लिखने वाले लोगों को तो इंटरनेट पर मौजूद अश्लील कहानियों की वेबसाइट वाले हाथों हाथ अच्छे पैकेज पर ले लेंगे'...एक जनाब बोले 'की भाई नयी गालियां सीखनी हो तो भास्कर.कॉम की किसी भी खबर के कमेन्ट पढना, ऐसी-ऐसी गालियां मिलेंगी की तुमने सुनी भी नही होगी, कई बार तो लगता है की वहीँ के लोग बैठ के ये काम भी करते है'...खैर एक बंधू ऐसे भी थे जो पक्ष ले रहे थे उन्होंने कहा 'प्रतिस्पर्धा का दबाब और नौकरी जाने का खतरा ही है जो ऐसा लिखने पर बाध्य करता होगा'... हांलाकि मेरे कुछ मित्र भी वहां है..उनकी मज़बूरी भी समझी जा सकती है... लेकिन गलत को तर्कों का जमा पहनाकर सही नही बनाया जा सकता...सारी हदें पर हो रहीं है...समझ में नही आता की इसे क्या कहा जाये मानसिक दिवालियापन या हिट्स के लिए किसी भी हद तक चले जाने की सोच...जो भी है बहुत ही बुरा और निंदनीय है...और ऊपर से उल्टे जबाब, की लोग देखना चाहते है...अरे भाई इन्टरनेट पर बहुत वेबसाइट है, जिसे देखने वाले देखते है...भास्कर.कॉम पर लोग ख़बरों के लिए आते है...

अब हो सकता है की कुछ दिनों में भास्कर के लेखकों के विज्ञापन भी भास्कर.कॉम में छापेंगे- किसी भी तरह की सेक्स की समस्याओं के इलाज के लिए मिले...फलाना सिनेमा के पीछे भास्कर लेखक ग्रुप...(घबराएँ नही शर्माए नही सीधे चले आयें...)

भास्कर.कॉम की कलाकारी के कुछ तुच्छ से (लेकिन उन की नज़र में उत्कृष्ट) हेडिंग नमूने-

  • नहीं आता आपको सेक्स करना...तो लीजिए इस स्कूल में दाखिला
  • बड़े ब्रेस्ट की लड़की देखें...तो समझ जाएं कि उसकी...
  • सेक्स का मजा लेने में आगे होते हैं नास्तिक
  • सेक्स में खूब धमाल मचाते हैं 'लंबी उंगलियों' वाले...
  • पॉकेट में कंडोम लेकर घूमते हैं युवा...क्या मालूम,...
  • चाहिए सेक्स का अधिक आनंद तो देर किस बात की, पढ़िए...
  • कर्टनी को नहीं है अंतर्वस्त्रों से प्यार, आप खुद...
  • 'बॉल' तो मैदान में है जनाब...यहां क्या कर रहे हैं !
  • बस एक डोज और नारित्व का जलवा दिखेगा हर रोज़
  • इंटरनेट पर पोर्न देखने के सिवा कुछ और नहीं सूझता...
  • इस हॉट बाला के ब्रेस्ट देखकर कहीं उड़ न जाएं आपके...
  • कद्दू खरीदते-खरीदते उत्तेजक हो गईं मोहतरमा और...
  • मोटी महिलाओं को सेक्स करने में आती है शर्म
  • बत्ती बुझाकर करोगे सेक्स...तो नहीं आएगा मज़ा
  • शरीर की आग मिटाने के लिए इस हसीना ने क्या...
  • हॉट गागा के बदन पर लिपटा है यह खुशकिस्मत प्रशंसक
  • उसने भेजी अपनी न्यूड फोटो, फिर मैंने भी दिखा दिए...

-हिमांशु डबराल

(ये विचार मेरे व्यक्तिगत विचार है, ये किसीको भी आहात करने के लिए नही लिखे गये है...बस जो सही लगा वही है)

Monday, November 14, 2011

वो बचपन कितना अच्छा था....


वो बचपन कितना अच्छा था,
जब हम उछला-कूदा करते थे...

वो बचपन कितना अच्छा था,
जब हम बिन बात ही हंसा करते थे...
अम्बर की छत के नीचे,
पकड़म-पकड़ा करते थे...
वो बचपन कितना अच्छा था...

एक दूजे से प्यार गजब,
अपनेपन का एहसास गजब,
खुशबु के आगन में हम सब,
जब तितली पकड़ा करते थे...
वो बचपन कितना अच्छा था...

-हिमांशु डबराल

Saturday, October 15, 2011

शायद तुम वो नहीं हो....

शायद तुम वो नहीं हो,

जिसे दिल ढूंढा करता है...

शायद तुम वो नहीं हो,

जो मेरे हर एहसासों में है,

मेरी हर सांसों में हैं,

जो मेरे दिल के करीब है,

शायद तुम वो नहीं हो....


मेरे हर ख्वाब में जिसका चहरा था,

लबों पे जिसके मेरा नाम सुनते ही ख़ुशी आती थी,

हंसीं से जिसकी ज़िंदगी गुनगुनाती थी,

शायद तुम वो नहीं हो....


वो शायद तुम हो भी नहीं सकते,

तुम वो सच में नहीं हो,

तुम कहीं नहीं हो, कहीं नहीं...

शायद तुम, तुम ही नहीं...

-हिमांशु डबराल


Wednesday, September 14, 2011

हिंदी हूँ मैं...


एक रात जब मैं सोया तो मैंने एक सपना देखा, जिसका जिक्र मै आपसे करने पर विवश हो गया हुं...सपने में मै हिंदी दिवस मानाने जा रहा था तभी कही से आवाज आई...रुको! मैने मुड़कर देखा तों वहा कोई नही था...मै फिर चल पड़ा...फिर आवाज आयी...रुको! मेरी बात सुनो...मैने ग़ौर से सुना तो लगा की कोई महिला वेदना भरे स्वरों में मुझे पुकार रही हो...मैने पूछा आप कौन हो? जबाब आया...मैं हिंदी हुं... मैने कहा कौन हिंदी? मै तो किसी हिंदी नाम की महिला को नही जानता...दोबारा आवाज आई - तुम अपनी मातृभाषा को भूल गए??? मेरे तों जैसे रोगटे खड़े हो गए...मैने कहा मातृभाषा आप! मै आपको कैसे भूल सकता हूँ...फिर आवाज आयी 'जब तुम सब मुझे बोलने में शर्म महसूस करते हो, तो भूलना न भूलना बराबर ही है'...

फिर हिंदी ने बोलना शुरू किया- 'तुम मेरी शोक सभा में जा रहे हो न??? मैने कहा ऐसा नही है ये दिवस आपके सम्मान में मनाया जाता है... हिंदी ने कहा - नही चाहिए ऐसा सम्मान... मेरा इससे बड़ा अपमान क्या होगा की हिन्दुस्तानियों को हिंदी दिवस मानना पड़ रहा है...

उसके बाद हिंदी ने जो भी कहा वो वो इन पक्तियों के माध्यम से प्रस्तुत है...

हिंदी हूँ मैं! हिंदी हूँ मैं..

भारत माता के माथे की बिंदी हूँ मै

देवों का दिया ज्ञान हूँ मै,

घट रही वो शान हूँ मै,

हिन्दुस्तानियों का इमान हूँ मै॥

इस देश की भाषा थी मै,

करोडो लोगो की आशा थी मै

हिंदी हूँ मैं! हिंदी हूँ मैं..

भारत माता के माथे की बिंदी हूँ मै

सोचती हूँ शायद बची हूँ मै,

किसी दिल में अभी भी बसी हूँ मै,

पर अंग्रेजी के बीच फसी हूँ मै...

न मनाओ तुम मेरी बरसी,

मत करों ये शोक सभाएं,

मत याद करो वो कहानी...

जो नही किसी की जुबानी

सोचती थी हिंद देश की भाषा हूँ मै,

अभिव्यक्ति की परिभाषा हूँ मैं,

सच्ची अभिलाषा हूँ मैं,

लेकिन अब निराशा हूँ मैं...

जी हाँ हिंदी हूँ मैं

भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ मैं...

इस सपने के बाद मै हिंदी दिवस के किसी कार्यक्रम में नही गया...घर में बैठ कर बस यही सोचता रहा की क्या आज सच में हिंदी का तिरस्कार हो रहा हैं??? क्या हमे अपनी मातृभाषा के सम्मान के लिए किसी दिन की आवश्यकता है??? शायद नही...

मेरा तो यही मानना है की आप अपनी मातृभाषा को केवल अपने दिलों-जुबान से सम्मान दो...और अगर ऐसा सब करे तो हर दिन हिंदी दिवस होगा...

जय हिंदी...


-हिमांशु डबराल

(2009 में हिंदी दिवस के दिन लिखा लेख और कविता)

Tuesday, September 13, 2011

तुम पास तो हो मेरे....

तुम पास तो हो मेरे, लेकिन फासले फिर भी है,

मंजिल पर खड़ा हूँ मै, मगर रास्ते फिर भी है...

तुम पास तो हो मेरे....



यूँ तो चांदनी भी है, रौशनी भी है,

लेकिन दिलों में अँधेरे, फिर भी है...

तुम पास तो हो मेरे...



- हिमांशु डबराल

Monday, August 15, 2011

एक दिन की देशभक्ति...

आज 15 अगस्त है...आज़ादी का दिन...कल से ही मोबाईल पर मेसेज आने शुरू हो गए थे और आज तों इन्बोक्स भर गया..कोई शहीदों की दुहाई दे रहा है तो कोई आज़ाद भारत की उपलब्धिया गिना रहा है...कुछ लोग शर्म के मारे मेसेज कर रहे थे क्यूकी वो रोज डे, फलाना डे, ढिमका डे सबको विश करते है...और कुछ तो केवल इसलिए मेसेज कर रहें है की उन पर आरोप न लगे की वो देशभक्त नही है...लेकिन देशभक्ति दिखने का ये अच्छा तरीका है...वाह...मैने किसी को मेसेज नही बेझा...न मैं किसी कार्यक्रम में गया...क्या करता जाकर भी...बचपन से जाता रहा हुं...स्कूल में जाते थे तो लड्डू मिलता था...नाम था आज़ादी का लड्डू , वो लड्डू खाने से पहले देश भक्ति के गाने गए जाते थे...भाषण सुनाये जाते थे...उस समय आज़ादी का मतलब नही पता था...लेकिन आज जब पता है तो सोचता हुं की हम सच में आज़ाद है??? शायद नही...हम शायद आज भी गुलाम हैं..मानसिक रूप से...तभी तो आज़ादी के असली मायनो को आज तक नहीं समझ पाए...
वैसे आप सोच रहे होगें कि ये एक दिन की देशभक्ति क्या है? ये वो है जो आपके और हमारे अन्दर 15 अगस्त के दिन पैदा होती है और इसी दिन गायब हो जाती है। जी हाँ हम लोग अब एक दिन के देशभक्त बनकर रह गये है।
एक समय था जब हर व्यक्ति के अन्दर एक देशभक्त होता था, जो देश के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता था। लेकिन आज के इस आधुनिक समाज को न जाने क्या हो गया है। देशभक्ति तो बस इतिहास के पन्नो में दफन हो कर रह गयी है। आज हर तीज त्योहारों की ड्राइविंग सीट पर बाजार बैठा है। और हमारा स्वतन्त्रता दिवस भी बाजार के हाथों जकड़ा नजर आ रहा है।15 अगस्त भी बाजार के लिये किसी दिवाली से कम नहीं आपको बाजार मे छोटेबड़े तिरंगे, तिरंगे के रंग वाली पतंगे और न जाने क्या क्या स्वतन्त्रता दिवस के नाम पर बिकता नजर आ जायेगा। जिसको देखों अपने हाथ में तिरंगा लिये धूमता रहता हैं… भले ही उसके मन मे तिरंगे के लिये सम्मान हो न हो… खैर वो भी क्या करे दिखावे का जमाना है...दिखावा नही करेगा तो समाज में अपनी देशभक्ति कैसे दिखायेगा...अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाली पी़ढी शायद ही भगत सिंह, चन्द्र्शेखर के बारे मे जान पायेगी…
15 अगस्त का एक वाकया मुझे याद आता है आज से कुछ साल पहले मैं घर से आजादी की वर्षगांठ मनाने जा रहा था। कुछ बच्चे हाथ में तिरंगा लिये स्कूल जा रहे थे। तभी एक बच्चे के हाथ से तिरंगा गिर गया। भीड़ की वजह से वो उसे उठा नहीं पा रहा था। तिरंगे के उपर से न जाने कितने लोग गुजर गये… लेकिन किसी ने उसे उठाया नहीं। आजादी के प्रतीक का यह अपमान देख कर मुझे शर्म सी महसुस हो रहीं थी… मैने पहले जाकर तिरंगे को उठाया और आगे जा रहे बच्चे को दिया… दूसरा बच्चा बोला ये तो गन्दा हो गया है… 5 रूपये का ही है… नया ले लेगें…ये बात सुनकर हैरानी हो रही थी...मैने उससे बोला की बेटा ऐसा नही कहते....वो बच्चे चले गए लेकिन मै वही खड़ा रहा...यही सोचता रहा की हमने अपने बच्चों को तो देशभक्ति और तिरंगे का सम्मान करना नहीं सिखाया। लेकिन वहां से गुजर रहे और लोगो को देख कर लग रहां था कि हम खुद भी नहीं समझे… आज उसी तिरंगे को उठाने में हमे शर्म महसूस हो रही है जिसे फहराने के लिये शहीदों ने हंसते हंसते अपनी जान दे दी।
मै घर वापस आ गया...मुझे लगा की एक दिन जा कर ऐसे कार्यक्रम में शिरकत करना कोई देशभक्ति नही...केवल दिखावा है...ढकोसला है...अपने अंदर के देश भक्त का गला तो हम पहले ही घोट चुके है...फिर किस बात का आज़ादी का जश्न??? उल्टा ऐसा कर हम उन शहीदों का और उनकी शहादत का अपमान कर रहे है...
हमारे नेताओं को भी देशभक्ति ऐसे ही मौकों पर याद आती है। ऐसे ही दिन शहीदों की तस्वीरें निकाली जाती है… उन पर मालायें चढाई जाती है… देशभक्ति के राग अलापे जाते है। उसके बाद शहीदों की ये तस्वीरें किसी कोने में धूल फॉकती रहती हैं। इनकी सुध तक नही ली जाती। ये कैसी देशभक्ति है? केवल शहीदों के नाम पर स्मारक बनवाना और उस पर माला चढाना ही काफी नहीं है। जिस तरह माली की हिम्मत नहीं कि वो फूले खिला दे, उसका काम तो पौधे के लिये उचित माहौल तैयार करना है… उसी तरह हमें मिलकर देशप्रेम का ऐसा माहौल तैयार करना होगा की सबके मन में देशभक्ति रूपी फूल हमेशा खिलता रहे। ये नेता भी आजादी के असली मायनों को समझें और हम भी समझें तभी ये आजादी हमारे लिये सार्थक होगी।
हम सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। हम अपने परिवार के लिए तो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते है लेकिन हम भूल जाते है की देश के प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेदारियां हैं, जिन्हे हममें से कोई भी नही निभाना चाहता। हर कोई अपने में खोया है, पता नहीं कोई देश के बारे में कोई सोचता भी है या नहीं, मै और कुछ कहना नहीं चाहता… लेकिन एक शेर याद आ रहा है-

बर्बादी ए गुलिस्तां के लिये एक शाख पे उल्लू काफी था
हर शाख पे उल्लू बैठा है अन्जामे गुलिस्तां क्या होगा?

-हिमांशु डबराल

(पुराना लेख लेकिन आज भी यही विचार है, आज भी यही आलम है)

Friday, August 12, 2011

परछाई थी...


जो मिला था वो अब भी दिल के करीब है,

जो गया शायद वो उसकी परछाई थी...

- हिमांशु डबराल

Sunday, April 10, 2011

फिर से...

फिर से वो दिन लौट कर क्यों नही आते,

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


यूँ तो दिन भी रोज आते हैं और रातें भी,

लेकिन वो रातें, वो दिन फिर नही आते...

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


चाय पीने दूर तक चले जाना,

अचानक से घुमने का प्लान बनाना,

घुमने के लिए घर में झूट बोल कर आना,

अब तो वो दोस्त बहाने भी नही बनाते...

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों...


वो पहाड़ों में घूमना, वो मस्ती में झूमना,

लड़ के एक दुसरे से यूँ ही मुह मोड़ना,

वो लड़ना झगड़ना, वो अजीब सी बातें,

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


कभी एक दुसरे के लिए मरने को तैयार हो जाना,

कभी आपस में ही दुश्मन बन जाना,

कभी यूँ ही हंसाते, कभी यूँ ही रुलाते,

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


अब तो वो अपनी नयी दुनिया में खो गये है,

पहले अपने थे हम, अब बेगाने हो गये है,

पहले तो बात किये बगैर रह नही सकते थे,

अब तो उनके पयाम भी नही आते...

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


-हिमांशु डबराल

Monday, February 14, 2011

प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया...

किस मोड़ पे तो पता नहीं, हाँ लेकिन एक ऐसे मोड़ पर लाकर ज़रूर खड़ा कर दिया है, जहाँ मोहब्बत बाज़ारू नज़र रही है। वेलेन्टाइन वीक चल रहा है। बाज़ार, प्यार के तोहफ़ों से सजा हुआ है, तोहफों की भरमार है बशर्ते आपकी जेब में दाम हो! वैसे भी नया ट्रैण्ड यही है,जितना मंहगा गिफ्ट, उतना ज्यादा प्यार ये नया ट्रैंड आज के युवाओं में ज्यादा देखने को मिल रहा है। पूरे वेलेन्टाइन वीक को कुछ इस तरह बनाया गया है कि लगभग हर दिन कुछ--कुछ गिफ्ट देने पर ही प्यार टिकाऊ होता है। पूरा वेलेन्टाइन वीक बाज़ार के हिसाब से बना हैं, असली मजे तो गिफ्टशॉप वालों के आते हैं। क्या आज रिश्तें, उपहारों के मोहताज़ हो गए हैं?

कुछ लोगों का कहना है कि ये दिन प्यार ज़ाहिर करने के लिए बनाये गए हैं। लेकिन प्यार तो भावनाओं और आत्मा का विषय है। एक छोटा सा गुलाब भी दिल की बात कह सकता है जबकि लाखों की अंगूठी नहीं। वैसे भी जहां से ये वेलेन्टाइन वीक शुरू हुआ वहां क्यों डिवोर्स बढ़ते जा रहे हैं? क्यों वहां प्यार, भावनाओं और रिश्तों कि अहमियत को नहीं समझा जाता? सिर्फ प्यार की बातें करने से या प्यार के नाम एक दिन कर देने से कुछ नहीं होने वाला। लेकिन फिर भी ऐसे दिनों की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्या तरक्की के इस दौर में हम रिश्तों की अहमियत भूलते जा रहे हैं? आज प्यार, प्यार नहीं बल्कि दिखावा नज़र आता है। रिश्तें मूल्य खोते जा रहे हैं, बस शेष रह गयी है तो औपचारिकताएं जो ऐसे दिनों की शक्लों में नज़र आ रही हैं।

प्यार के इस बदलते स्वरूप को देखकर तो यह लगता है, कि आज हम इन ढाई आखर में छुपी भावनाओं को भूलते जा रहे हैं। ‘इश्क-मोहब्बत’ तो बस किताबों और फिल्मों में ही अच्छे लगते हैं। आजकल के युवा तो हर वेलनटाइन तो अलग-अलग साथी के साथ मनाते नज़र आते है। प्यार पल में होता है और पल में खत्म भी हो जाता है। ये कैसा प्यार है, जो बदलता रहता हैं?

लेकिन ऐसा नहीं है, कि आज के समय में प्यार पूरी तरह से बाज़ारू हो गया है। आज भी प्यार शब्द की गहराईयों को समझने वाले लोग हैं। ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहाँ प्यार की खातिर लोग जान तक गंवा बैठे हैं। प्यार की खातिर ही समाज से लड़ गए, तो कहीं धर्म जाति के बंधनों को भी प्यार ने ही तोड़ा है। प्यार केवल एक दिन का वेलनटाइन डे नहीं बल्कि ज़िदंगी भर एक दूसरे का साथ निभाना है। आज का समाज मशीनों से घिरा हुआ है जिससे इंसान भी एक तरह की मशीन ही बनता जा रहा हैं। ऐसे में जरूरत है तो दिल को मशीन बननें से रोकने की और प्यार शब्द के उस एहसास को समझने की जिसे हम भूलते जा रहे हैं, नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब प्यार लफ्ज़ ही दुनिया से खो जाएगा।

बाकि आजकल के युवाओं के लिये एक कवि की नसीहत याद आती है -

सरल सीखना है, बुरी आदतों का,

मगर उनसे पीछा छुड़ाना कठिन है।

सरल ज़िन्दगी में युवक प्यार करना,

सरल हाथ में हाथ लेकर टहलना,

मगर हाथ में हाथ लेकर किसी का,

युवक ज़िन्दगी भर निभाना कठिन है।।

-हिमांशु डबराल himanshu dabral

Saturday, January 22, 2011

समंदर है, समंदर है...चारों ओर समंदर है...

अपनी दमन और मुंबई यात्रा के दौरान समंदर में नाव में बैठा मैं कुछ सोच रहा था, उसी सोच ने इन पंक्तियों को जन्म दिया-


नीचे पानी का मंज़र है, ऊपर अम्बर है,

समंदर है, समंदर है...चारों ओर समंदर है...


कहीं प्यार के सदहज़ार फूल खिलें हैं हर तरफ,

कहीं दिल की ज़मी सदियों से बंज़र है....

समंदर है, समंदर है...चारों ओर समंदर है...


कहीं कोई आशिक जां गवा बैठता है महोब्बत में,

कही महबूब के हाथों में ही खंज़र है...

समंदर है, समंदर है...चारों ओर समंदर है...

-हिमांशु डबराल

himanshu dabral

Wednesday, January 5, 2011

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये...

आप सभी को भी नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये...ये नया साल आपके और आपके परिवार के लिए मंगलमय रहे...



हिमांशु डबराल
himanshu dabral