Sunday, April 10, 2011

फिर से...

फिर से वो दिन लौट कर क्यों नही आते,

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


यूँ तो दिन भी रोज आते हैं और रातें भी,

लेकिन वो रातें, वो दिन फिर नही आते...

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


चाय पीने दूर तक चले जाना,

अचानक से घुमने का प्लान बनाना,

घुमने के लिए घर में झूट बोल कर आना,

अब तो वो दोस्त बहाने भी नही बनाते...

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों...


वो पहाड़ों में घूमना, वो मस्ती में झूमना,

लड़ के एक दुसरे से यूँ ही मुह मोड़ना,

वो लड़ना झगड़ना, वो अजीब सी बातें,

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


कभी एक दुसरे के लिए मरने को तैयार हो जाना,

कभी आपस में ही दुश्मन बन जाना,

कभी यूँ ही हंसाते, कभी यूँ ही रुलाते,

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


अब तो वो अपनी नयी दुनिया में खो गये है,

पहले अपने थे हम, अब बेगाने हो गये है,

पहले तो बात किये बगैर रह नही सकते थे,

अब तो उनके पयाम भी नही आते...

फिर से मेरे दोस्त मुझे क्यों नही सताते...


-हिमांशु डबराल

1 comment:

  1. बेहतरीन कविता है या यूं कहे कि दिल की बात को शब्दो का रुप दे दिया है

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