कुछ दिनों पहले चाय की दुकान पर बैठा था मेरे पास में बैठा व्यक्ति फ़ोन पर जोर जोर से बात कर रहा था, तो उसकी बात न चाहते हुए भी सुननी पड़ रही थी...वो शायद अपनी पत्नी से बात कर रहा था...वो कह रहा था की 'तुमने कभी मना नही किया और मैं अपनी माँ के कहने पर हर महीने पच्चीस हज़ार में से माँ को दस हज़ार रूपये देता था'...मैंने इतनी बात सुनी तो लगा की वो और उसकी पत्नी कितने अच्छे होंगे जो घर में इतना सपोर्ट करते है..लेकिन अगले ही पल उसकी बात ने मुझे चौंका दिया...और मिनट से पहले ही मुझे सोच बदलनी पड़ी...वो अपनी पत्नी से बोला की 'अब मैं कुछ नही करने वाला भाई को देखो ज़रा, उसका फोन आया था... मुझसे कह रहा था की माँ-पापा की दवाई का खर्चा वो ही उठाता है और पिछली बार जब माँ एडमिट हुई थी तो उसने ही खर्चा किया था, लेकिन साले ने सरकारी अस्पताल में एडमिट कराया होगा और मुझसे बाते बना रहा है, मैंने जो घर में इतना दिया है उसका क्या...तो उधर से उसकी पत्नी ने कुछ कहा होगा तो वो फिर बोला ‘अरे नही, तुम नही जानती, बहुत तेज आदमी है...अब मैं कुछ नही करने वाला किसी के लिए भी...उसे देखना हो तो देखे माँ बाप को, मैंने जितना देंना था दे दिया...अब तो मैं अपना अपना ही करूँगा...’
मुझे उसकी सोच पर घृणा हो रही थी, कि वो अपने माँ बाप कि दवाई के खर्चों के लिए भी अपने भाई से लड़ रहा है...उसके माँ-बाप ने शायद ही उसकी या उसके भाई कि परवरिश में कोई कमी कि होगी...उसकी माँ ने खाना कम पड़ने पर शायद ही कभी सोचा होगा कि पहले अपना पेट भर लूँ फिर बच्चों को दूँ या बच्चों के लिए कपडे खरीदने कि जगह अपने लिए साड़ी खारीद लूँ...लेकिन दोनों भाई अब माँ-बाप की देखभाल तक करने में पैसों को देख रहे है, वो सोच रहे हैं कि मैं ज्यादा क्यों खर्च करूँ...
हांलाकि माँ-बाप के तिरस्कार के कई मामले सामने आते रहते है जो सोचने पर मजबूर करते हैं कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है...बड़े होते ही माँ-बाप हमे बोझ लगते है...कुछ लोगों का कहना है कि जब हमारा परिवार बढ़ जाता है शादी, बच्चे और दुनिया भर के खर्चे बढ़ जातें है तो हमारी प्राथमिकताएं बदल जाती है...या कहें कि परिस्थितियाँ विपरीत हो जाती हैं...बात भी गलत नहीं है लेकिन अगर आप सक्षम हैं और आप फिर भी अपने माँ-बाप के लिए कुछ नही कर रहे है तो मुझे ये बोलने में कोई शर्म नही होगी कि आपसे नालायक ओर धूर्त कोई नही है...
मेरे एक मित्र(जो शादीशुदा हैं) कह रहे थे कि कई बार जब आपकी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती है और जब नयी पीढ़ी आपसे सवाल करती है कि आपने क्या किया? तो हम निउत्तर नहीं होना चाहते...या जब समाज हमारे किये को मान्यता नही देता है तो हम खीज कर सोचते है कि जब इतना कुछ करके भी लोग ये बोलते है कि कुछ नही किया, तो हम कुछ करें भी क्यों? लेकिन क्या हमे किसी कि नज़र में अच्छा बनने के लिए कुछ करना है या हमे अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियां का निर्वाहन करना है...
मेरी बातें कुछ लोगों को आदर्शवादी ओर वास्तविकता से परे या फिर किताबी लग सकती हैं लेकिन वो लोग आईने के सामने खुद से ये सवाल पूछे, उनको खुद कि आखों में जवाब मिल जायेगा...
मुझे लगता है ये बातें कोई आदर्शवादी बातें नहीं है ये बातें तो आम होनी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य है कि ये आम नही है...अब हम सब ये सोचते है कि जो व्यक्ति अपने माँ-बाप के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभा रहा है वो बहुत आदर्श व्यक्ति है...महान टाइप...हमे उस व्यक्ति को देख अच्छा तो लगता है लेकिन हम अपने घर आकर उसके जैसा नही बनना चाहते...क्यों?
-हिमांशु डबराल
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