Wednesday, March 17, 2010

‘जनवाणी’ से ‘सत्ता की वाणी’ तक का सफर…


मीडिया पर आये दिन सवाल खड़े हो रहे हैं, विश्वसनीयता भी कम हुई है। बाजारीकरण का मीडिया पर खासा प्रभाव देखने को मिल रहा है। खबरों और मीडिया के बिकने के आरोपों के साथ-साथ कई नए मामले भी सामने आए हैं। ऐसे में पत्रकारिता को किसी तरह अपने बूढे क़न्धों पर ढो रहे पत्रकारों के माथे पर बल जरूर दिखायी दे रहे हैं।
भारत में पत्रकारिता का इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। आजादी के दीवानों की फौज में काफी लोग पत्रकार ही थे, जिन्होंने अपनी आखिरी सांस तक देश व समाज के लिये कार्य किये। लेकिन ये बातें अब किताबों और भाषणों तक ही रह गई हैं। जैसी परिस्थितियों से उस दौर के पत्रकारों को गुजरना पड़ता था, आज के पत्रकारों को भी सच कहने या सच लिखने पर वैसे ही दौर से गुज़रना पड़ता है। सच कहने वालों को सिरफिरा कहा जाता है और उन्हें नौकरी नहीं मिलती, मिल जाये तो उन्हें निकाल दिया जाता है। इसके बावजूद भी कई ऐसे लोग है जो सही पत्रकारिता कर रहे हैं।
2009 के लोकसभा चुनावों में मीडिया का वो स्वरूप देखने को मिला जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी, वो था मीडिया का बिकाऊ होना। हालांकि चुनाव के समय में इस तरह की छुटपुट घटनाएं सामने आती रहती थीं, लेकिन इस बार सारी हदें पार हो गईं। कुछ अखबार व कुछ समाचार चैनलों को छोड़ दें तो पूरा मीडिया बिका हुआ नजर आया। ऐसा होना सच में शर्मनाक था और लोकतन्त्र के लिये दुर्भाग्यपूर्ण। खबरें, यहां तक कि संपादकीय भी पैकेजों में बेचे जाने लगे। एक पृष्ठ पर एक ही सीट के दो-दो उम्मीदवारों को मीडिया विजयी घोषित करने लगा और हद तो तब हो गई जब मीडिया ने पैकेज न मिलने पर प्रबल उम्मीदवार के भी हारने के आसार बता दिये।
पैसे से पत्रकार व पत्रकारिता खरीदी जा रही है। लेकिन जो बिक रहा है शायद वो पत्रकारिता का हिस्सा कभी था ही नहीं। सत्ता में बैठे लोगों की भाषा आज की पत्रकारिता बोल रही है और नहीं तो पैसे की भाषा तो मीडिया द्वारा बोली ही जा रही है। कुछ एक को इन बातों से ऐतराज हो सकता है, लेकिन आंखे बंद करके चलना भी ठीक नहीं है। बाकी मीडिया का जनवाणी से सत्ता की वाणी बनने तक का सफर काफी कुछ इसी तरह चलता रहा।
रही-सही कसर पत्रकारिता में आए नौजवानों ने पूरी कर दी है। एक ओर ज्ञान की कमी, दूसरी ओर जल्दी सब कुछ पा लेने की इच्छा और पैसे कमाने की होड़ ने इन्हें आधारहीन पत्रकारिता की ओर मोड़ दिया है। प्रतिस्पर्धा के दबाव ने भी नौजवानों को पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता करने पर विवश कर दिया है। वैसे दोष उनका भी नहीं है। लाखों रूपए खर्च करने के बाद बने इन डिग्रीधारक पत्रकारों से मूल्यों की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
खैर, हम तो बस इसी ख्याल में बैठे हैं कि मीडिया जल्द ही पुन: जनवाणी बन जायेगा… लेकिन मन यही कहता है कि,
‘दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है गालिब…।’
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- हिमांशु डबराल
himanshu dabral

Tuesday, March 16, 2010

नववर्ष मंगलमय हो...


सभी को भारतीय नववर्ष सम्वत् २०६७ विक्रमी ("शोभन" नामक सम्वत्सर) तथा नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनायें।आप सभी के लिए ये नया साल नयी खुशियाँ ले कर आयें और मंगलमय रहे...


-हिमांशु डबराल

Wednesday, March 10, 2010

वो अच्छा है...


जिंदगी में, बंदगी में, आरज़ू में, गुफ़्तगू में,
जो भी मिले वो अच्छा है...
बात में, साथ में, उपहास में या सौगात में,
जो भी मिले वो अच्छा है...
रंग में, संग में और ढंग में,
जो भी मिले वो...
रात में, बरसात में, हाथ में या मुलाकात में,
जो भी मिले वो...
अंधेरों में, उजालों में, चाय के दो प्यालो में
और घटा से उन बालों में,
जो भी मिले वो...
ठोकर में, ढ़ोकर में और जोकर में,जो भी मिले वो...
प्यार में, इजहार में, तकरार में और इस संसार में,
जो भी मिले वो...
गीत में, रीत में, प्रीत में, मीत में या जीत में,
जो भी मिले वो...
सागर में, सहरा में, तेरा में या मेरा में,
जो भी मिले वो...

खेल में, मेल में, जेल में और सेल में,
जो भी मिले वो...

-हिमांशु डबराल
himanshu dabral

क्या हो?

क्या हो जब जिंदगी रंग न लाये,
क्या हो जब जिंदगी के रंग उड़ जाये...
क्या हो जब तुम बदल जाओ,
क्या हो जब हम बदल जाये....
-हिमांशु डबराल

Monday, March 8, 2010

महिला दिवस की शुभकामनाये...

मेरी ओर से सभी महिलाओं को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाये...
फूल नही चिंगारी है,
भारत की ये नारी है...
-हिमांशु डबराल

Friday, March 5, 2010

सिक्के का दूसरा पहलू.....

आज मैने एक ब्लॉग पर एक कहानी पढ़ी...वो लड़का( यहाँ पढ़ें- http://imnindian-bakbak.blogspot.com/2009/11/blog-post_30.html).उस कहानी को पढने के बाद मुझे एक लड़की की कहानी याद आ गयी..जो लिखी है...शायद इसके बाद कुछ लोग इसे पुरुषवादी मानसिकता से लिखा हुआ बताये...लेकिन मै तों बस सिक्के का दूसरा पहलू दिखाना चाहता हूँ....शायद आईना...शायद सच...
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वो लड़की...
एक लड़की थी...जिसकी शादी तय हुई...उस लड़की के लिए शादी सिर्फ एक बंधन थी...पर घर वालों की मर्ज़ी के आगे वो कुछ नहीं कर पाई...मज़बूरी में उसे शादी के लिए हाँ करना पड़ा...उसका होने वाला पति उसको बहुत प्यार करता था...वो उसके लिए बहुत गिफ्ट ले कर आता था...
उसे हमेशा खुश रखना चाहता था... लेकिन वो उस लड़के के साथ बाहर घुमने जाने में आनाकानी करती थी...उसे डर था की उसके कोई पुराने बॉयफ्रेंड्स न मिल जाये...अगर मिल गये तो उसका कच्चा-चिठ्ठा खुल जायेगा...
उसे आपने कमरे में भी नही आने देती थी...क्यूकी उस कमरे में उसके पुराने बॉयफ्रेंड्स के गिफ्ट्स रखे थे...
उसने इससे पहले कई लडको को धोका दिया था...
और शायद इस लड़के को भी धोका देना चाहती थी...वो ये भी नही जानती थी की उसने कितनी बार खुद को धोखा दिया है...पैसे की चाह ने उसे अन्धा कर दिया था...
उसके लिए रिश्तों का मतलब सिर्फ पैसा और ऐश था...मौज मस्ती का एक जरिया इससे ज्यादा कुछ नही...
उसके लिए बॉयफ्रेंड सिर्फ कार की तरह थे जिसे बोर हो जाने पर बदल दिया जाता है...घर में खड़ा करके नही रखा जाता...और रखा भी जाता है तो भी उसे उपयोग नही किया जाता...घुमा तो नयी गाड़ी में जाता है...
ऐसे में क्या कहा जाये...
किन्तु अब बात पूरी लगती है... "वो लड़का और वो लड़की''...लेकिन सिक्के का तीसरा पहलू भी है...सोचते रहिये...पर्दा जल्द उठेगा

हिमांशु डबराल
himanshu dabral