मीडिया पर आये दिन सवाल खड़े हो रहे हैं, विश्वसनीयता भी कम हुई है। बाजारीकरण का मीडिया पर खासा प्रभाव देखने को मिल रहा है। खबरों और मीडिया के बिकने के आरोपों के साथ-साथ कई नए मामले भी सामने आए हैं। ऐसे में पत्रकारिता को किसी तरह अपने बूढे क़न्धों पर ढो रहे पत्रकारों के माथे पर बल जरूर दिखायी दे रहे हैं।
भारत में पत्रकारिता का इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। आजादी के दीवानों की फौज में काफी लोग पत्रकार ही थे, जिन्होंने अपनी आखिरी सांस तक देश व समाज के लिये कार्य किये। लेकिन ये बातें अब किताबों और भाषणों तक ही रह गई हैं। जैसी परिस्थितियों से उस दौर के पत्रकारों को गुजरना पड़ता था, आज के पत्रकारों को भी सच कहने या सच लिखने पर वैसे ही दौर से गुज़रना पड़ता है। सच कहने वालों को सिरफिरा कहा जाता है और उन्हें नौकरी नहीं मिलती, मिल जाये तो उन्हें निकाल दिया जाता है। इसके बावजूद भी कई ऐसे लोग है जो सही पत्रकारिता कर रहे हैं।
2009 के लोकसभा चुनावों में मीडिया का वो स्वरूप देखने को मिला जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी, वो था मीडिया का बिकाऊ होना। हालांकि चुनाव के समय में इस तरह की छुटपुट घटनाएं सामने आती रहती थीं, लेकिन इस बार सारी हदें पार हो गईं। कुछ अखबार व कुछ समाचार चैनलों को छोड़ दें तो पूरा मीडिया बिका हुआ नजर आया। ऐसा होना सच में शर्मनाक था और लोकतन्त्र के लिये दुर्भाग्यपूर्ण। खबरें, यहां तक कि संपादकीय भी पैकेजों में बेचे जाने लगे। एक पृष्ठ पर एक ही सीट के दो-दो उम्मीदवारों को मीडिया विजयी घोषित करने लगा और हद तो तब हो गई जब मीडिया ने पैकेज न मिलने पर प्रबल उम्मीदवार के भी हारने के आसार बता दिये।
पैसे से पत्रकार व पत्रकारिता खरीदी जा रही है। लेकिन जो बिक रहा है शायद वो पत्रकारिता का हिस्सा कभी था ही नहीं। सत्ता में बैठे लोगों की भाषा आज की पत्रकारिता बोल रही है और नहीं तो पैसे की भाषा तो मीडिया द्वारा बोली ही जा रही है। कुछ एक को इन बातों से ऐतराज हो सकता है, लेकिन आंखे बंद करके चलना भी ठीक नहीं है। बाकी मीडिया का जनवाणी से सत्ता की वाणी बनने तक का सफर काफी कुछ इसी तरह चलता रहा।
रही-सही कसर पत्रकारिता में आए नौजवानों ने पूरी कर दी है। एक ओर ज्ञान की कमी, दूसरी ओर जल्दी सब कुछ पा लेने की इच्छा और पैसे कमाने की होड़ ने इन्हें आधारहीन पत्रकारिता की ओर मोड़ दिया है। प्रतिस्पर्धा के दबाव ने भी नौजवानों को पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता करने पर विवश कर दिया है। वैसे दोष उनका भी नहीं है। लाखों रूपए खर्च करने के बाद बने इन डिग्रीधारक पत्रकारों से मूल्यों की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
खैर, हम तो बस इसी ख्याल में बैठे हैं कि मीडिया जल्द ही पुन: जनवाणी बन जायेगा… लेकिन मन यही कहता है कि, ‘दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है गालिब…।’
.
भारत में पत्रकारिता का इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। आजादी के दीवानों की फौज में काफी लोग पत्रकार ही थे, जिन्होंने अपनी आखिरी सांस तक देश व समाज के लिये कार्य किये। लेकिन ये बातें अब किताबों और भाषणों तक ही रह गई हैं। जैसी परिस्थितियों से उस दौर के पत्रकारों को गुजरना पड़ता था, आज के पत्रकारों को भी सच कहने या सच लिखने पर वैसे ही दौर से गुज़रना पड़ता है। सच कहने वालों को सिरफिरा कहा जाता है और उन्हें नौकरी नहीं मिलती, मिल जाये तो उन्हें निकाल दिया जाता है। इसके बावजूद भी कई ऐसे लोग है जो सही पत्रकारिता कर रहे हैं।
2009 के लोकसभा चुनावों में मीडिया का वो स्वरूप देखने को मिला जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी, वो था मीडिया का बिकाऊ होना। हालांकि चुनाव के समय में इस तरह की छुटपुट घटनाएं सामने आती रहती थीं, लेकिन इस बार सारी हदें पार हो गईं। कुछ अखबार व कुछ समाचार चैनलों को छोड़ दें तो पूरा मीडिया बिका हुआ नजर आया। ऐसा होना सच में शर्मनाक था और लोकतन्त्र के लिये दुर्भाग्यपूर्ण। खबरें, यहां तक कि संपादकीय भी पैकेजों में बेचे जाने लगे। एक पृष्ठ पर एक ही सीट के दो-दो उम्मीदवारों को मीडिया विजयी घोषित करने लगा और हद तो तब हो गई जब मीडिया ने पैकेज न मिलने पर प्रबल उम्मीदवार के भी हारने के आसार बता दिये।
पैसे से पत्रकार व पत्रकारिता खरीदी जा रही है। लेकिन जो बिक रहा है शायद वो पत्रकारिता का हिस्सा कभी था ही नहीं। सत्ता में बैठे लोगों की भाषा आज की पत्रकारिता बोल रही है और नहीं तो पैसे की भाषा तो मीडिया द्वारा बोली ही जा रही है। कुछ एक को इन बातों से ऐतराज हो सकता है, लेकिन आंखे बंद करके चलना भी ठीक नहीं है। बाकी मीडिया का जनवाणी से सत्ता की वाणी बनने तक का सफर काफी कुछ इसी तरह चलता रहा।
रही-सही कसर पत्रकारिता में आए नौजवानों ने पूरी कर दी है। एक ओर ज्ञान की कमी, दूसरी ओर जल्दी सब कुछ पा लेने की इच्छा और पैसे कमाने की होड़ ने इन्हें आधारहीन पत्रकारिता की ओर मोड़ दिया है। प्रतिस्पर्धा के दबाव ने भी नौजवानों को पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता करने पर विवश कर दिया है। वैसे दोष उनका भी नहीं है। लाखों रूपए खर्च करने के बाद बने इन डिग्रीधारक पत्रकारों से मूल्यों की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
खैर, हम तो बस इसी ख्याल में बैठे हैं कि मीडिया जल्द ही पुन: जनवाणी बन जायेगा… लेकिन मन यही कहता है कि, ‘दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है गालिब…।’
.
- हिमांशु डबराल
himanshu dabral