वो तो नदी है, उसे सबसे प्यार है.… लेकिन वो किसी बंधन में नहीं बंधना चाहती… न उसे उस झरने का प्यार रोक पता है जो ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से कूदकर मिठास लिए उसके पास आता है… सागर की चाहत तो उसे भाती है लेकिन उसके खारेपन से उसे चिढ भी है इसीलिए उसतक पहुँचने से पहले ही वो कहीं खो जाती है... उसे तो शायद बारिश की उन बूंदों से प्यार है जो कभी-कभी बरसती हैं लेकिन जब मिलती हैं तरंगित कर जाती हैं, बिना किसी बंधन के, बिना किसी आस के.…
Saturday, August 29, 2015
Saturday, August 1, 2015
तुम जीना सिखा गयी...
अरसे बाद उँगलियों ने किसी एहसास को लिखने की कोशिश की है
पता नहीं क्यों ये कतराती थी कुछ लिखने से
शायद कहीं सच न लिख दें
शायद यही वजह रही होगी....
सोचा की तुम्हे लिखके भेज दूँ वो सारे सवाल
मांगूं जवाब की क्यों गयी तुम
कुरेद दूँ उन धूल खायी परतों को
सह लूँ एक बार उस दर्द को
एक आखरी बार
सच बताऊँ तो हिम्मत नहीं जुटा पता हूँ
बस सोचके ही रह जाता हूँ
पता नहीं क्यों बार-बार रोक लेता हूँ उस सैलाब को
क्यों नहीं ज़ाहिर होने देता हूँ उस गुस्से को
शायद तुम्हारी वो मुस्कान मुझे रोक लेती है
जिसके लिए मैं अपने को भी हारने को तैयार था
किसी के होते हुए भी न होने का ख्याल भी कितना डरावना है
लेकिन इस हकीकत से साथ जीना मरने से भी मुश्किल काम है
हाँ हाँ मैंने ही कहा था की मारना बहुत आसान है
पर तुम तो जीना सिखा गयी...
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