मैं दौलत शोहरत न चाहूँ,
ये झूठी रौनक न चाहूँ...
छोटा सा एक घरोंदा हो,
जहाँ फुर्सत के पलों को जी जाऊं...
मैं दौलत शोहरत न चाहूँ....
चोट मिले तों मुस्काऊं,
जब दर्द मिले तो मैं गाऊं...
मैं दौलत शोहरत न चाहूँ,..
आखों में बसूं न बसूं ,
दिल में तों मैं बस जाऊं...
मैं दौलत शोहरत न चाहूँ...
सड़कों पे उजालें हो न हो,
ज़हनों में अन्धेरें न चाहूँ...
मैं दौलत शोहरत न चाहूँ...
-हिमांशु डबराल himanshu dabral
Wednesday, November 10, 2010
Thursday, November 4, 2010
दिवाली कहें या दिवाला ?
‘दीपावली’, एक पावन त्यौहार। इस मौके पर दीप जलाकर अंधेरे को दूर किया जाता हैं, खुशियां मनायी जाती हैं, तरह-तरह की मिठाईयां, पकवान, पटाखे और नये कपड़े खरीदे जाते हैं, घरों की सफाई की जाती है। लेकिन इस बार दिवाली के मौके पर आम लोगों के चेहरे उतरे नजर आ रहे हैं। लोगों के चेहरे से त्योहार की रौनक की चमक दूर होने का कारण है महंगाई। महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोडी है।
महंगाई की वजह से त्योहारों की खुशी भी कहीं खो गई है। सभी चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। दिवाली आते ही घर का बजट गडबडाने का डर सताने लगता है। लेकिन करें भी तो क्या करें। बढ़ती मंहगाई ने अमीर व गरीब के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है। आज अमीर और अमीर हो रहा है, ऐसे में वो तो महंगी से महंगी चीज बड़ी आसानी से खरीद सकते हैं लेकिन इस महंगाई के दौर में गरीब आदमी की तो मन गई दिवाली...वो तो सिर पकड़कर बैठ जाता है कि दिवाली कैसे मनाए। और अगर किसी तरह गरीब इंसान मंहगाई से बच भी जाये तो नकली मिठाई, नकली पटाखे आदि आपका दीवाला निकाल देंगे और रही-सही कसर प्रदूषण और शराबी लोग पूरी कर देंगे।
बहरहाल दिवाली आ तो गयी है, लेकिन वो दिवाली वाली बात कहीं नजर नहीं आ रही...कुछ साल पहले तक दिवाली की तैयारियां एक महीने पहले ही शुरु हो जाती थी...लगता था कोई बड़ा त्योहार आ रहा है, लेकिन हमारी परंपरायें और हमारे त्योहार आधुनिकता और बाजारवाद की भेट चढ रहे है...दिया जलाओं न जलाओं लेकिन कुछ मीठा हो जाये...पूजा करो न करो लेकिन दिवाली के जश्न में शराब जरुर पीयेंगे। बाजार भी दिवाली के साजो-समान से भरा तो हुआ है लेकिन ज्यादातर सामान चाईनीज है...मिट्टी के दियों कि जगह चाईनीज दिये और लाईटों ने ले ली है, यहां तक कि लक्ष्मी-गणेश भी चाईनीज है...वाह रे इंडिया...अब चाईनीज गणेश जी की पूजा भी चाईनीज में करेंगे शायद...
खैर ये चाईनीज चीजें भी गरीबों के लिये नहीं है, ऐसी स्थिति में आम आदमी बड़ी मुश्किल से दिवाली मना पाता है और दिवाली मनाने का खामियाजा 2-3 महिने तक खर्चों में कटोती करके भुगतता है...और गरीब आदमी की बात छोड़ ही दीजिये वो बेचारा दिवाली वाले दिन भर पेट खाना भी खा ले तो उसकी दिवाली तो मन गई समझो...गरीबों के लिये तो एक दिया तक जलाने के पैसे जुटाना भारी पड़ जाता है...सालभर अंधेरे में डूबी उनकी झोपड़ी दिवाली के दिन भी जगमागा नहीं पाती...उनके बच्चे भी दिवाली के दिन आसमान में रोशनी देखकर ही खुश हो जाते है या अमीरों के बच्चों की ओर टकटकी लगाये देखते रहते है...शायद कोई उन्हे भी पटाखे या फुलझड़ी दे दे। लाखों घरों में दिवाली खुशी नहीं बल्कि दुख और निराशा लेकर आती है... अब आप ही सोचिए इसे दिवाली कहें या दिवाला ?
-हिमांशु डबराल himanshu dabral
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